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26 March, 2023

महादेवी वर्मा

 महादेवी वर्मा

(आधुनिक युग की मीरा, हिंदी भाषा की एक अच्छी कवयित्री)



जन्म तिथि: 26 मार्च 1907

जन्म स्थान: उत्तर प्रदेश

पिता का नाम : गोविंदप्रसाद वर्मा

माता का नाम : हेमरा की देवी

निधन: 11 सितंबर 1987

आधुनिक युग की मीरा’ कही जाने वाली महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में होली के दिन  26 मार्च 1907 में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई और एम. ए. उन्होंने संस्कृत में प्रयाग विश्वविद्यालय से किया। बचपन से ही चित्रकला, संगीतकला और काव्यकला की ओर उन्मुख महादेवी विद्यार्थी जीवन से ही काव्य प्रतिष्ठा पाने लगी थीं। वह बाद के वर्षों में लंबे समय तक प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या रहीं। वह इलाहाबाद से प्रकाशित ‘चाँद’ मासिक पत्रिका की संपादिका थीं और प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ नामक संस्था की स्थापना की थी।  

‘निराला वैशिष्ट्य’ की स्वामिनी महादेवी वर्मा छायावाद की चौथी स्तंभ भी कही जाती हैं। प्रणय एवं वेदनानुभूति, जड़ चेतन का एकात्म्य भाव, सौंदर्यानुभूति, मूल्य चेतना, रहस्यात्मकता उनकी मुख्य काव्य-वस्तु है। वह प्रधानतः गीति कवयित्री हैं जिनके काव्य में परंपरा और मौलिकता का अद्वितीय समन्वय नज़र आता है। शब्द-निरूपण, वर्ण-विन्यास, नाद-सौंदर्य और उक्ति-सौंदर्य-सभी दृष्टियों से वह भाषा पर सहज अधिकार रखती हैं। उन्होंने अपने काव्य में प्रतीकात्मक संकेत-भाषा का प्रयोग किया है जिसमें छायावादी प्रतीकों के साथ ही मौलिक प्रतीकों का भी कुशल प्रयोग हुआ है। उनका वर्ण-परिज्ञान उनके बिंब-विधान की प्रमुख विशेषता है। चाक्षुष, श्रव्य, स्पर्शिक बिंबों में उनकी विशेष रुचि रही है। अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत के साम्य गुणों का चित्रण वह बख़ूबी करती हैं। रूपक, अन्योक्ति, समासोक्ति तथा उपमा उनके प्रिय अलंकार हैं। उनके संबंध में कहा गया है कि छायावाद ने उन्हें जन्म दिया था और उन्होंने छायावाद को जीवन दिया। 

उन्होंने कविताओं के साथ ही रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध, डायरी आदि गद्य विधाओं में भी योगदान किया है। ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘सांध्य गीत’, ‘यामा’, ‘दीपशिखा’, ‘साधिनी’, ‘प्रथम आयाम’, ‘सप्तपर्णा’, ‘अग्निरेखा’ उनके काव्य-संग्रह हैं। रेखाचित्रों का संकलन ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’ में किया गया है। ‘शृंखला की कड़ियाँ’, ‘विवेचनात्मक गद्य’, ‘साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध’, ‘संकल्पिता’, ‘हिमालय’, ‘क्षणदा’ उनके निबंधों का संकलन है। 

वह साहित्य अकादेमी की सदस्यता प्राप्त करने वाली पहली लेखिका थीं। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण पुरस्कारों से सम्मानित किया। उन्हें यामा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उनके सम्मान में जयशंकर प्रसाद के साथ युगल डाक टिकट भी जारी किया।  


सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी और महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।


आधुनिक हिंदी की सबसे शक्तिशाली कवियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें "हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती" भी कहा है।

उन्होंने खड़ी बोली हिंदी कविता में एक नरम शब्दावली विकसित की जो आज तक केवल व्रज भाषा में ही संभव मानी जाती है। उसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर उन्हें हिंदी का रूप दिया। संगीत के पारखी होने के कारण उनके गीतों का मधुर सौन्दर्य और उनके काव्य-वाक्यों की व्यंजन शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपना करियर शुरू किया और अंत तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाध्यापिका बनीं। उनका बाल विवाह हुआ था लेकिन उन्होंने अपना जीवन कुंवारे के रूप में बिताया। प्रख्यात कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत की विदुषी होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं।


उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत एक शिक्षिका के रूप में की और अंत तक प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य बनीं। बाल विवाह किया लेकिन ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत किया। उन्होंने गद्य में भी लिखा। वे संगीत और चित्रकला में भी निपुण थे। उन्होंने नौहार, रश्मी, नीरजा, संध्या गीत, दीपशिखा, यम, सप्तपूर्णा, अतीत के चलचित्र केकम स्मृति की रेखा, स्मृति, दृष्टि बोध, नीलांबर, आत्मिका, विवेचनात्मक गद्य, खंड जैसी पुस्तकें लिखी हैं। नैनीताल से 25 किमी. उन्होंने दूर रामगढ़ के उमागढ़ में एक बंगला बनवाया, जिसे आज महादेवी साहित्य संगमालय के नाम से जाना जाता है। वहीं रहते हुए उन्होंने महिला जागरूकता, महिला शिक्षा और नशामुक्ति के लिए काम किया। हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान के बाद 1987 में महादेवी वर्मा का इलाहाबाद में निधन हो गया।


गांधी का उन पर बहुत प्रभाव था। यह गांधी ही थे जिन्होंने उन्हें महिला शिक्षा के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया। गांधी को केवल हिंदी में बोलते देख महादेवी ने पूछा क्यों, बापू ने कहा कि केवल हिंदी भाषा ही भारत की आत्मा को आसानी से व्यक्त कर सकती है। तभी से महादेवी ने हिंदी को अपने जीवन का आधार बनाया।

महादेवी वर्मा की प्रमुख रचनाएं

महादेवी वर्मा के आठ कविता संग्रह है जिनमे निहार 1930 में, रश्मि 1932 में, सांध्यगीत 1936 में, दीपशिखा 1942 में सप्तपर्णा को अनूदित है 1959 में प्रथम आयाम 1974 मेंं अग्निरेखा 1990 में प्रकाशित हुए।

देवी वर्मा जी के 10 से ज्यादा काव्य संकलन प्रकाशित हुए जिनमें से निम्न है। आत्मिका, निरन्तरा, परिक्रमा, सन्धिनी 1965 में यामा 1936 में गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका और हिमालय उल्लेखनीय है।

महादेवी वर्मा के प्रमुख रेखा चित्रों में अतीत के चलचित्र 1941 में और स्मृति की रेखाएं 1943 में श्रृंखला की कड़ियां और मेरा परिवार उल्लेखनीय है।

महादेवी वर्मा ने 1956 में पद का साथी और 1972 में मेरा परिवार स्मृति चित्रण 1973 में और संस्मरण 1983 में उल्लेखनीय संस्मरण लिखे।

महादेवी वर्मा के प्रमुख निबंध संग्रह में श्रृंखला की कड़ियां 1942 में प्रकाशित हुई और विवेचनात्मक गद 1942 साहित्यकार की आस्था और अन्य निबंध 1962 संकल्प ता 1969 और भारतीय संस्कृति के स्वर उल्लेखनीय है। क्षणदा महादेवी वर्मा का एकमात्र ललित निबंध ग्रंथ है।  प्रमुख कहानी संग्रह में गिल्लू प्रमुख है। संभाषण नामक भाषण संग्रह 1974 में प्रकाशित हुआ।

प्रमुख कविता संग्रह में ठाकुरजी भोले हैं और आज खरीदेंगे हम ज्वाला प्रमुख है।

महादेवी वर्मा की कविताएं –

  • निहार (1930)
  • रश्मी (1932)
  • नीरजा (1933)
  • संध्यागीत (1935)
  • प्रथम आयाम (1949)
  • सप्तपर्ण (1959)
  • दीपशिक्षा (1942)
  • अग्नि रेखा (1988)
महादेवी वर्मा की कहानियाँ
 
  • अतीत के चलचित्र
  • पथ के साथी
  • मेरा परिवार
  • संस्मरण
  • संभाषण
  • स्मृति के रेहाये
  • विवेचमानक गद्य
  • स्कंध
  • हिमालय


महादेवी वर्मा को मिली प्रमुख पुरस्कार और सम्मान

  • महादेवी जी को 1934 में नीरजा के लिए सक्सेरिया पुरस्कार दिया गया।
  • 1942 में स्मृति की रेखाएं के लिए द्विवेदी पदक दिया गया।
  • महादेवी वर्मा को 1943 में मंगलाप्रसाद पारितोषिक भारत भारती के लिए मिला।

  • महादेवी वर्मा को 1952 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए मनोनीत भी किया गया।

  • 1956 में भारत सरकार ने साहित्य की सेवा के लिए इन्हें पद्म भूषण भी दिया।
  • 1982 में यामा के लिए महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।
  • महादेवी वर्मा को मरणोपरांत 1988 में पद्म विभूषण पुरस्कार दिया गया।

  • महादेवी वर्मा को 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 
  • 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 
  • 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा
  •  1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने इनको डी.लिट (डॉक्टर ऑफ लेटर्स) की उपाधि दी।

1979: साहित्य अकादमी फेलोशिप।

28 अप्रैल 2018: महादेवी वर्मा को भारत के गूगल डूडल पर चित्रित किया गया


महादेवी वर्मा के बारे में रोचक तथ्य

  • इनका बाल विवाह किया गया लेकिन इन्होंने अपना जीवन अविवाहित की तरह ही गुजारा।

  • महादेवी वर्मा की रुचि, साहित्य के साथ साथ संगीत में भी थी। चित्रकारिता में भी इन्होंने अपना हाथ आजमाया।

  • महादेवी वर्मा का पशु प्रेम किसी से छुपा नहीं है वह गाय को अत्यधिक प्रेम करती थी।

  • महादेवी वर्मा के पिताजी मांसाहारी थे और उनकी माताजी शुद्ध शाकाहारी थी।

  • महादेवी वर्मा कक्षा आठवीं में पूरी प्रांत में प्रथम स्थान पर रही।

  • महादेवी वर्मा इलाहाबाद महिला विद्यापीठ की कुलपति और प्रधानाचार्य भी रही।

  • यह भारतीय साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली पहली महिला थी जिन्होंने 1971 में सदस्यता ग्रहण की।


"मेरी आहे सोती है ऑटो की सौतो में, मेरा सर्वस्व छुपा है इन दीवानी चौतो में" -


महादेवी वर्मा की मृत्यु 11 सितंबर 1987 को इलाहाबाद (प्रयागराज), उत्तर प्रदेश में हुई थी। मृत्यु के समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी। उन्होंने अपने जीवन में गुलाम भारत व आजाद भारत दोनों को देखा था।

वह छायावादी आंदोलन की एक महान कवयित्री थी जिन्होंने अनेकों विषयों पर कहानियां, कविताएं, उपन्यास आदि लिखे।

03 August, 2021

मैथिलीशरण गुप्त

 

मैथिलीशरण गुप्त

(राष्ट्रकवि )


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त  हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे

बाल कविताओं के प्रमुख कवि और खड़ी बोली को अपनी कविताओं का माध्यम बनाने वाले प्रमुख महत्वपूर्ण कवि मैथिलीशरण गुप्त थे

 मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता  रामचरण गुप्त और माता काशीबाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। 

माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। 

गुप्तजी के पिता स्वयं एक अच्छे कवि थे। पिता के काव्यानुरागी स्वभाव का गुप्तजी के जीवन पर प्रभाव पड़ा और बाल्याकाल में ही उन्होंने एक कविता रच डाली। पिता ने प्रशन्न होकर उन्हें महान कवि बनने का आशीर्वाद दिया, जो आगे चलकर फलीभूत हुआ ।

विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। 

रामस्वरूप शास्त्री, दुर्गादत्त पंत, आदि ने उन्हें विद्यालय में पढ़ाया। घर में ही हिन्दीबंगलासंस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरीजी ने उनका मार्गदर्शन किया। 

१२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरम्भ किया। 

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने के कारण गुप्त जी को अपने प्रतिभा के अनुरूप क्षेत्र प्राप्त हुआ और उनकी काव्य-चेतना का विस्तार हुआ। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के गुरु का नाम आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी था । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी से इन्हें बहुत प्रेरणा मिली। इसलिए ये द्विवेदी जी को अपना गुरु मानते थे ।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।

 उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।


 उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी।


उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।


महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। 


इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्तजी का सबसे बड़ा योगदान है। 


घासीराम व्यासजी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्तजी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।


रचनाएँ


  • अनूदित रचनाएँ— ‘वीरांगना‘, ‘मेघनाद-वध’, ‘वृत्त-संहार’, ‘स्वप्नवासदत्ता’, ‘प्लासी का युद्ध’, ‘विरहिणी’, ‘ब्रजांगना’ आदि इनकी अनूदित रचनाएँ हैं।
  • मौलिक रचनाएँ— ‘साकेत’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोदरा’, ‘द्वापर’, ‘जयभारत’, ‘विष्णुप्रिया’ आदि आपकी मौलिक रचनाएँ हैं।
  • साकेतः- यह उत्कृष्ट महाकाव्य है, श्रीरामचरितमानस के पश्चात् हिन्दी में राम काव्य का दूसरा स्तम्भ यही महाकाव्य है।
  • भारत-भारतीः- इसमें देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। इसी रचना के कारण गुप्त जी राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात् हैं।
  • यशोधराः- इसमें बुद्ध की पत्नी यशोधरा के चरित्र को उजागर किया गया है।
  • द्वापर, जयभारत, विष्णुप्रियाः- इसमें हिन्दू संस्कृति के प्रमुख पात्रों का चरित्र का पुनरावलोकन कर कवि ने अपनी पुनर्निर्माण कला को उत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित किया है।

गुप्त जी की अन्य प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं—

‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ-वध’, ‘किसान’, ‘पंचवटी’, ‘हिन्दू-सैरिन्धी’, ‘सिद्धराज’, ‘नहुष’, ‘हिडिम्बा’, ‘त्रिपथमा’, ‘काबा और कर्बला’, ‘गुरुकुल’, ‘वैतालिक’, ‘मंगलघट’, ‘अजित’ आदि।
‘अनघ’, ‘तिलोत्तमा’, ‘चन्द्रहास’ नामक तीन छोटे-छोटे पद्यबन्ध रूपक भी गुप्त जी ने लिखे हैं। इस प्रकार गुप्त जी का साहित्य विशाल और विषय-क्षेत्र बहुत विस्तृत है।


गुप्तजी को उनके काव्य की सर्वोत्कृष्टता पर सम्मानित करते हुए आगरा विश्वविद्यालय साहित्य-वाचस्पति की मानद्-उपाधि से विभूषित किया।


गुप्तजी को हिन्दी साहित्य-सम्मेलन ने इनकी रचना ‘साकेत’ पर ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार’ प्रदान किया।


 गुप्त जी को दो बार राज्य-सभा के सदस्य होने का सम्मान भी प्राप्त हुआ ।


राष्ट्र की आत्मा को वाणी देने के कारण मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि कहा जाता है। महात्मा गाँधी ने इनकी राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत रचनाओं के आधार पर ही इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित किया था, हिन्दी काव्य को श्रृंगार रस की दलदल से निकालकर उसमें राष्ट्रीय भावनाओं की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय गुप्त जी को ही है। 


12 दिसम्बर, 1964 ई. को माँ भारती का यह महान साधक पंचतत्व में विलीन हो गया ।


नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है, 

सूर्य - चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।

 नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मण्डन है,

 बन्दीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है।

 करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेष की,

 हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।।

31 July, 2021

मुंशी प्रेमचंद


मुंशी प्रेमचंद


प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं।

मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई 1880–8 अक्तूबर 1936) का जन्म वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। 

 उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। 

उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।

उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। 

13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया ।

 १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। 

नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।

१९१० में उन्‍होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।


सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। 

उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। 

वे आर्य समाज से प्रभावित रहे जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था।

 उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। 

उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 

१९१० में उनकी रचना सोज़े-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। 

सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। 

कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। 

इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। 

उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अजीज दोस्‍त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी।

 इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। उन्‍होंने आरंभिक लेखन ज़माना पत्रिका में ही किया।

 जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।

यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। 



उपन्यास: सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान ; 

कहानी संग्रह: नमक का दरोग़ा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन ; 

बालसाहित्य: कुत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ आदि।

कृतियाँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है।

उपन्‍यास

प्रेमचंद के उपन्‍यास न केवल हिन्‍दी उपन्‍यास साहित्‍य में बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्‍य में मील के पत्‍थर हैं। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्यासकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। चूंकि प्रेमचंद मूल रूप से उर्दू के लेखक थे और उर्दू से हिंदी में आए थे, इसलिए उनके सभी आरंभिक उपन्‍यास मूल रूप से उर्दू में लिखे गए और बाद में उनका हिन्‍दी तर्जुमा किया गया। उन्‍होंने 'सेवासदन' (1918) उपन्‍यास से हिंदी उपन्‍यास की दुनिया में प्रवेश किया। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा लेकिन इसका हिंदी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित कराया। 'सेवासदन' एक नारी के वेश्‍या बनने की कहानी है। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार 'सेवासदन' में व्‍यक्‍त मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता है। इसके बाद किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास 'प्रेमाश्रम' (1921) आया। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन 'सेवासदन' की भांति इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। 'प्रेमाश्रम' किसान जीवन पर लिखा हिंदी का संभवतः पहला उपन्‍यास है। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया। इसके बाद 'रंगभूमि' (1925), 'कायाकल्‍प' (1926), 'निर्मला' (1927), 'गबन' (1931), 'कर्मभूमि' (1932) से होता हुआ यह सफर 'गोदान' (1936) तक पूर्णता को प्राप्‍त हुआ। रंगभूमि में प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात कर चुके थे। गोदान का हिंदी साहित्‍य ही नहीं, विश्‍व साहित्‍य में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्‍य संबंधी विचारधारा 'आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद' से 'आलोचनात्‍मक यथार्थवाद' तक की पूर्णता प्राप्‍त करती है। एक सामान्‍य किसान को पूरे उपन्‍यास का नायक बनाना भारतीय उपन्‍यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। सामंतवाद और पूंजीवाद के चक्र में फंसकर हुई कथानायक होरी की मृत्‍यु पाठकों के जहन को झकझोर कर रख जाती है। किसान जीवन पर अपने पिछले उपन्‍यासों 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' में प्रेमंचद यथार्थ की प्रस्‍तुति करते-करते उपन्‍यास के अंत तक आदर्श का दामन थाम लेते हैं। लेकिन गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। यह उनकी आखिरी दौर की कहानियों में भी देखा जा सकता है। 'मंगलसूत्र' प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है। प्रेमचंद के उपन्‍यासों का मूल कथ्‍य भारतीय ग्रामीण जीवन था। प्रेमचंद ने हिंदी उपन्‍यास को जो ऊँचाई प्रदान की, वह परवर्ती उपन्‍यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्‍यास भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुए, खासकर उनका सर्वाधिक चर्चित उपन्‍यास गोदान।

असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्टूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक प्रकाशित। सेवासदन १९१८, प्रेमाश्रम १९२२, रंगभूमि १९२५, निर्मला १९२५, कायाकल्प १९२७, गबन १९२८, कर्मभूमि १९३२, गोदान १९३६, मंगलसूत्र (अपूर्ण), प्रतिज्ञा, प्रेमा, रंगभूमि, मनोरमा, वरदान।

कहानी

उनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद ने कुल ३०१ कहानियाँ लिखी हैं जिनमें ३ अभी अप्राप्य हैं। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन नाम से जून १९०८ में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।

उनके जीवन काल में कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- सोज़े वतन, 'सप्‍त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा', 'मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद साहित्‍य के मु्दराधिकार से मुक्‍त होते ही विभिन्न संपादकों और प्रकाशकों ने प्रेमचंद की कहानियों के संकलन तैयार कर प्रकाशित कराए। उनकी कहानियों में विषय और शिल्प की विविधता है। उन्होंने मनुष्य के सभी वर्गों से लेकर पशु-पक्षियों तक को अपनी कहानियों में मुख्य पात्र बनाया है। उनकी कहानियों में किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों, आदि की समस्याएं गंभीरता से चित्रित हुई हैं। उन्होंने समाजसुधार, देशप्रेम, स्वाधीनता संग्राम आदि से संबंधित कहानियाँ लिखी हैं। उनकी ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में ये नाम लिये जा सकते हैं-

'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बड़े भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि।

नाटक

प्रेमचंद ने संग्राम (1923), कर्बला (1924) और प्रेम की वेदी (1933) नाटकों की रचना की। ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।

लेख/निबंध

प्रेमचंद एक संवेदनशील कथाकार ही नहीं, सजग नागरिक व संपादक भी थे। उन्‍होंने 'हंस', 'माधुरी', 'जागरण' आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हुए व तत्‍कालीन अन्‍य सहगामी साहित्यिक पत्रिकाओं 'चाँद', 'मर्यादा', 'स्‍वदेश' आदि में अपनी साहित्यिक व सामाजिक चिंताओं को लेखों या निबंधों के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त किया। अमृतराय द्वारा संपादित 'प्रेमचंद : विविध प्रसंग' (तीन भाग) वास्‍तव में प्रेमचंद के लेखों का ही संकलन है। प्रेमचंद के लेख प्रकाशन संस्‍थान से 'कुछ विचार' शीर्षक से भी छपे हैं। प्रेमचंद के मशहूर लेखों में निम्‍न लेख शुमार होते हैं- साहित्‍य का उद्देश्‍य, पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिंदी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान आदि।

अनुवाद

प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। आजाद-कथा (उर्दू से, रतननाथ सरशार), पिता के पत्र पुत्री के नाम (अंग्रेजी से, जवाहरलाल नेहरू) उनके द्वारा रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिंदी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।

पुरस्कार व सम्मान

प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३१ जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया।

 गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है

प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा।


तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमीत।

31 May, 2021

अहिल्याबाई होल्कर

 अहिल्याबाई होल्कर



जन्म दिनांक: 31 मई सन् 1725 ई
जन्मस्थान: चांऊडी गांव (चांदवड़), अहमदनगर, महाराष्ट्र
मृत्यु: 13 अगस्त सन् 1795 ई.
पिता का नाम:मानकोजी शिंदे
माता का नाम:सुशीला बाई
पति: खंडेराव
बच्चे: मालेराव (पुत्र) और मुक्ताबाई (पुत्री)
पद: महारानी
 कर्म भूमि:भारत

महारानी अहिल्याबाई होल्कर की आज 295 वीं जयंती है. महारानी अहिल्याबाई होल्कर एक बहादुर, निडर और महान योद्धा थीं. जिन्होंने अपने शासन के दौरान प्रजा के हित के लिए कई काम किए हैं.

उनको हमेशा से एक बहादुर, आत्मनिष्ठ, निडर महिला के रूप में याद किया जाता है. ये अपने समय की सर्वश्रेष्ठ योद्धा रानियों में से एक थीं, जो अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहती थीं. इतना ही नहीं उनके शासन काल में मराठा मालवा साम्राज्य ने काफी ज्यादा नाम कमाया था. जनहित के लिए काम करने वाली महारानी ने कई हिंदू मंदिर का निर्माण भी करवाया था, जो आज भी पूजे जाते हैं.

अहिल्याबाई एक दार्शनिक और कुशल राजनीतिज्ञ थीं. इसी वजह से उनकी नजरों से राजनीति से जुड़ी कोई भी बात छुप नहीं सकती थी. महारानी की इन्हीं खूबियों के चलते ब्रिटिश इतिहासकार जॉन कीस ने उन्हें 'द फिलॉसोफर क्वीन' की उपाधि से नवाजा था.

महारानी अहिल्याबाई होलकर 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ शहर के एक छोटे से गांव चौंडी में जन्मी थी। उनके पिता का नाम पाटिल मंकोजी राव शिंदे है और उनकी माता का नाम सुशीला बाई था। महारानी अहिल्याबाई अपने माँ बाप की एक लोती बच्ची थीं। और उनके पिता महिला की  शिक्षा के हिमायती थे, वो उस समय जहाँ पर महिलाओं को घर से भी बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी।उस समय उनके  पिता ने अहिल्याबाई का साथ दिया और उनको घर पर पड़ाना शुरू कर दिया था वे बचपन से ही  लक्षणरहित योग्यता की महिला थी, जो कि किसी भी विषय को बहुत ही आसानी से समझ जाती थी। आगे चलकर उन्होंने अपने काम से लोगों को हैरान कर दिया। और बहुत सारी मुश्किलों का सामना करने के बाद भी अहिल्याबाई होलकर ने कभी भी अपनी राह से विचलित नहीं हुई और वो अपने लक्ष्य तक पहूंचने में सफल हो गई।


अहिल्याबाई होल्कर का विवाह मल्हार राव के बेटे खंडेराव से हुआ था, लेकिन साल 1754 में पति की मृत्यु के बाद महारानी ने सती होने का फैसला लिया था. इनके इस फैसले ने सबको हैरान कर दिया था, लेकिन उनके ससुर ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया था. वहीं कुछ समय बाद महारानी के पुत्र की मृत्यु  हो गई थी


  • महारानी अहिल्याबाई बचपन से ही दया, लोगों के लिए किसी भी प्रकार का मनभेद नही होना और  लोगो की मदद करने में विश्वास करती थी । एक दिन की बात है जिस दिन अहिल्याबाई गरबी लोगों को भोजन करवा रही थी। मालवा राज के राजा  मल्हार राव होलकर  जो पुणे जा रहे थे और आराम करने के लिए  चोंडी गांव में ही रुके हुए थे और उनकी अहिल्याबाई पर नज़र पड़ी। 
  • अहिल्याबाई को लोगो के प्रति  दया भाव को देखकर महाराज मल्हार राव होलकर इतने खुश हुए कि उन्होंने महारानी अहिल्याबाई होलकर के पिता मानकोजी शिंदे से अपने बेटे की शादी अहिल्याबाई से करवाने के लिए  हाथ मांगा लिया।
  • साल 1733 में जब अहिल्याबाई होलकर 8 साल की ही  थी, तब ही उनकी शादी खंडेराव के साथ करवा दी गई क्योंकि उस समय मे बाल विवाह करना एक रिवाज माना जाता था जिसमे लड़के और लड़कियो दोनों की ही छोटी उम्र में शादी करवा दी जाती थी।खांडरेव होलकर के मराठा सम्राट थे जिस से अहिल्याबाई की शादी हुई तो इस वजह से शादी के बाद अहिल्याबाई छोटी उम्र में ही मराठा साम्राजय की रानी बन गई।
  • शादी के 10 साल बाद अहिल्याबाई और खांडेराव होलकर को 1745 में एक  बेटा हुआ जिसका नाम उन्होंने  मालेराव रखा था और बेटे के जन्म के 3 साल बाद ही 1748 में उनकी बेटी हुई जिसका नाम उन लोगों ने मुक्ताबाई रखा था।
  • अहिल्याबाई, राजकीय कार्य मे अपने पति की बहुत ही मदद करती थी, साथ ही उन्होंने अपने पति को युद्ध और एक कौशल फौजी के रूप में निखरने के लिए हमेशा उत्साहित भी किया करती थी । हालांकि, खांडेराव एक अच्छे सिपाही थे, जिन्होंने अपने पिता से फ़ौजी कौशल की शिक्षा ली थी।
  • अहिल्याबाई की बहुत ही खुशी से और  शांती से अपने जीवन को जी रही थी । लेकिन साल 1754 में अहिल्याबाई की जिंदगी में दुखो का समुंद्र ही टूट पड़ा। 
  • अहिल्याबाई जिस समय  21 साल की ही थी तो तभी उनके पति युद्ध मे शहीद हो गए। जिसका सदमा अहिल्याबाई को बहुत पड़ा था। अपने पति से इतने प्यार करने की वजह से अहिल्याबाई ने संत होने का फैसला ले लिया, लेकिन उनके ससुर जो कि उनके पिता समान है पिता ने उनको  ऐसा करने से रोक दिया उनकी बात को मान कर अहिल्याबाई अपना फैसला बदल लिया|
  • साल 1766 में ही मल्हार राव होलकर की भी मृत्यु हो गई। शासन संभालने के कुछ दिनों बाद ही साल 1767 में उनके बेटे मालेराव की भी मौत हो गई। पति,पुत्र और अपने पिता समान ससुर की मृत्यु के बाद भी उन्होंने खुद को जिस तरह से  संभाला है जो कि काबिलय तारीफ है।

  • एक महान और वीर स्तर के तौर पर अहिल्याबाई ने 18वीं सदी में राजधानी माहेश्वर में नर्मदा नदी के किनारे एक बहुत ही सुंदर और आलीशान अहिल्या महल को बनवाया । इस महल में गाने, कला, शास्त्र समूह के लिए जाना जाता था।
  • महारानी अहिल्याबाई किसी बड़े शहर की महारानी नही थी लेकिन तब भी उन्होंने अपने शासन प्रणाली की अवधि में अपने राज्य के विवरण करने में और और उसको एकदम सम्पन्न और विकसित शहर बनाने के काम करने में लग गयी।
  • इंदौर  शहर को एक सुंदर शहर बनाने के लिए महारानी अहिल्याबाई ने अपना बहुत से योगदान दिया था। कम से कम 30 साल के आश्रयजनक प्रधान के बाद अहिल्याबाई ने एक छोटे से गांव को एक बहुत ही खूबसूरत शहर बना दिया तज जो कि समपन्न है।उन्होंने सरकार पर सड़क की मरम्मत, लोगों को रोजगार मिले, जो लोग भूखे है उन लोगों के लिए अन का प्रम्बन्ध, और सबको शिक्षा प्राप्त हो चाहे वो पुरुष हो या महिला को मिलनी चाहिए इन सब कामों के लिए अहिल्याबाई ने काफी दबाव दिया।  अहिल्याबाई की वजह से ही आज भी इंदौर की पहचान एक भारत केसुंदर और विकसित देश में नाम आता है जो कि बहुत ही गर्व की बात है।
  • उनका प्रशासन-प्रबंध संबंधी तंत्र श्रेष्ठ था, वो खुद रात को देर देर तक जागती थी और खुद अपने राज्य का जितना भी काम है उसको खत्म करती थी।

महारानी अहिल्याबाई के सम्मान

महारानी अहिल्याबाई होलकर के किए गए महान कामों के लिए उनको  भारत सरकार की तरफ से 25 अगस्त साल 1996 में  समानित किया गया। और एक डाक टिकट को भी जारी कर दिया गया।  अहिल्याबाई जी के आसाधारण कामों के लिए भी उनके नाम पर एक अवॉर्ड भी स्थित किया गया था।

एक योजना उत्तराखण्ड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है। जो अहिल्‍याबाई होल्‍कर को पूर्णं सम्‍मान देती है। इस योजना का नाम ‘अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी विकास योजना है। अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी पालन योजना के तहत उत्तराखणवड के बेरोजगार, बीपीएल राशनकार्ड धारकों, महिलाओं व आर्थि के रूप से कमजोर लोगों को बकरी पालन यूनिट के निर्माण के लिये भारी अनुदान राशि प्रदान की जाती है। लगभग 1,00,000 रूपये की इस युनिट के निर्मांण के लिये सरकार की ओर से 91,770 रूपये सरकारी सहायता रूप में अहिल्‍याबाई होलकर के लाभार्थी को प्राप्‍त होते हैं।

 महारानी अहिल्याबाई को मौत सन् 13 अगस्त 1795  में तबियत खराब होने की वजह से हो गई थी। लेकिन आज भी अहिल्याबाई होलकर जी की उदारता और उनके महान कामों ने उनको अभी तक लोगो के दिल मे जिंदा बनाए रखा है।


अहिल्या घाट, 
वाराणसी


23 May, 2021

सुमित्रानंदन पंत

  सुमित्रानंदन पंत


जन्म  20 मई 1900

जन्म-स्थान – ग्राम कौसानी, उत्तराखंड

मूलनाम – गोसाईदत्त

उपाधि –

  • प्रकृति के सुकुमार कवि
  • छायावाद का प्रतिनिधि कवि – आचार्य शुक्ल
  • छायावाद का प्रवर्तक – नंददुलारे वाजपेयी
  • छायावाद का विष्णु – कृष्णदेव झारी
  • संवेदनशील इंद्रिय बोध का कवि
मृत्यु-स्थान – 28 दिसम्बर 1977 (इलाहाबाद में)


जन्म-स्थानः-

छायावादी वृहत्रयी के कौशेय कवि, सौन्दर्यावतार कवि श्री समित्रानन्दन पन्त जी का जन्म मई 20, 1900 ई० (संवत् 1957 वि०) को प्रकृति की सुरम्य क्रीड़ा स्थली कूर्मांचल प्रदेश के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में हुआ था।

पिताः-

पन्त जी के पिता का नाम पं गंगादत्त पन्त था। पिता पं. गंगादत्त पन्त कौसानी में चाय-बागान के मैनेजर और एकाउण्टैण्ट थे। वे लकड़ी और कपड़े का व्यापार भी करते थे।

माताः-

प्रकृति के सुसुमार कवि पं. श्री समित्रानन्दन पन्त जी की माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था।

सुमित्रानन्दन पन्त जी के बाल्यकाल का नामः-

पन्त जी के बचपन का मूल नाम गोसाईदत्त पन्त था। बाद में उन्होंने अपना नाम गोसाईदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन पन्त रखा।

शिक्षाः-

सन् 1905 में पाँच वर्ष के बालक पन्त ने विद्यारम्भ किया। पिता जी ने लकड़ी की पट्टी पर श्रीगणेशाय नमः लिखकर सरस्वती के वरद पुत्र को स्वर-व्यंजन वर्ण लिखना सिखाया। पन्त जी का प्रथम विद्यालय होने का श्रेय प्राप्त हुआ- उनके गाँव कौसानी की पाठशाला कौसानी वनार्क्यूलर स्कूल को। पन्त के फूफाजी ने उन्हें संस्कृत की शिक्षा दी तथा 1909 तक मेघदूत, अमरकोश, रामरक्षा-स्रोत, चाणक्य नीति, अभिज्ञान-शाकुन्तलम् आदि का ज्ञान पन्त जी को करवा दिया ।

पन्तजी के पिताजी ने उन्हें स्वयं घर पर ही अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान दी। इसके पश्चात् ये अल्मोड़ा के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् काशी के जयनारायण हाईस्कूल, बनारस से हाईस्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। हाईस्कूल के बाद पन्त जी ने आगे की शिक्षा हेतु प्रयाग के म्योर कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया। तीर्थराज प्रयाग पन्त जी की साहित्य-साधना का केन्द्र बना।

बाद में कालेज और परीक्षा के कठोर नियंत्रण से मुक्त होकर पन्त जी स्वाध्याय में निरत हुए और स्वयं ही अपने आप को शिक्षित करना प्रारम्भ किया। पन्त जी का लगाव संगीत से भी था। उन्होंने सारंगी, हारमोनियम, इसराज तथा तबला पर संगीत का अभ्यास भी किया और सुरुचिपूर्ण रहन-सहन तथा आकर्षक वेशभूषा से उधर झुकते भी गये।

श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यः-

सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी के आह्वान पर कॉलेज छोड़ दिया। सन् 1921 में गाँधी और गाँधी-विचार-दर्शन ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। किन्तु अपने कोमल स्वभाव के कारण सत्याग्रह में सम्मिलित न रह सके और पुनः साहित्य-साधना में संलग्न हो गये।
सन् 1950 में पन्त जी आकाशवाणी से जुड़े और वहाँ चीफ प्रोड्यूसर के पद पर सन् 1957 तक कार्यरत् रहे। सन् 1958 में आकाशवाणी में ही हिन्दी परामर्शदाता के रूप में रहे। तथा सोवियत-भारत-मैत्री-संघ के निमन्त्रण पर पन्त जी ने सन् 1961 में रूस तथा अन्य यूरोपीय देशों की यात्रा की।

पं. श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी को प्रकृति का सुकुमार कवि क्यों कहा जाता हैः-

प्रकृति आदर्श शिक्षिका-संरक्षिका होती है। प्रकृति की गोद में माँ की ममता और पिता का प्रेम एक साथ प्राप्त होता है।

कवि ने स्वयं लिखा है— “ मेरी प्रारम्भिक रचनाएँ प्रकृति की ही लीला – भूमि में लिखी गयी है। ” श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी के काव्य में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं। इन्होंने प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्रण में विकृत तथा कठोर भावों को स्थान नहीं दिया है। इनकी छायावादी कविताएँ अत्यन्त कोमल एवं मृदुल भावों को अभिव्यक्ति करती हैं। इन्हीं कारणों से पन्त जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है।

श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी को प्राप्त मान-सम्मान व पुरस्कारः-

  1. सन् 1960 ई० में हिन्दी-साहित्यकारों ने अज्ञेय द्वारा सम्पादित मानग्रन्थ- रूपाम्बरा, राष्ट्रपित-भवन में तत्कलीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने पन्त जी को दिया था। पन्त जी की षष्टि पूर्ति पर दिया गया रूपाम्बरा जैसा मानग्रन्थ अभी तक शायद ही किसी अन्य को प्राप्त हुआ हो।
  2. भारत सरकार द्वारा उनकी साहित्यिक-कलात्मक उपलब्धियों हेतु पदम-भूषण सम्मान सन् 1961 में प्रदान किया गया।
  3. कला और बूढ़ा चाँद पर सन् 1961 में ही साहित्यिक अकादमी का पाँच हजार रुपये का अकादमी पुरस्कार मिला।
  4. लोकायतन महाकाव्य पर नवम्बर, 1965 में प्रथम सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ।
  5. सन् 1965 में ही उत्तर प्रदेश सरकार का विशिष्ट साहित्यिक सेवा हेतु दस हजार रुपये का पुरस्कार मिला।
  6. पन्त जी को सन् 1967 ई० में विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट० की मानद उपाधि से विभूषित किया।
  7. पन्त जी को सन् 1968 में चिदम्बरा पर भारतीय ज्ञान-पीठ का एक लाख रुपये का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

मृत्यु-स्थानः-

पन्त जी आजीवन सृजन-कर्म में निरत-निलीन रहे। सरस्वती के इस पुजारी, ने इलाहाबाद की भूमि पर 77 वर्ष की आयु में, 28 दिसम्बर, 1977 ई० को अपने मधुरिम गान को भू पर छोड़कर स्वर्णिम पखेरु उड़ गये।


साहित्यिक-परिचयः-

पन्त जी का बाल्यकाल कौसानी के सुरम्य वातावरण में व्यतीत हुआ। इस कारण प्रकृति ही उनकी जीवन-सहचरी के रूप में रही और काव्य-साधना भी प्रकृति के बीच रहकर ही की। अतः प्रकृति वर्णन, सौन्दर्य प्रेम और सुकुमार कल्पनाएँ उनके काव्य में प्रमुख रूप से पायी जाती हैं। प्रकृति-वर्णन की दृष्टि से पन्त जी हिन्दी के वर्ड्सवर्थ माने जाते हैं। छायावादी युग के ख्याति प्राप्त कवि सुमित्रानन्दन पन्त सात वर्ष की अल्पायु से कविताओं की रचना करने लगे थे।

उनकी प्रथम रचना सन् 1916 ई० में सामने आयी। गिरजे का घण्टा नामक इस रचना के पश्चात् वे निरन्तर काव्य साधना में तल्लीन रहे। पन्त जी के साहित्य पर कवीन्द्र रवीन्द्र, स्वामी विवेकानन्द का और अरविन्द दर्शन का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इसलिए उनकी बाद की रचनाओं में अध्यात्मवाद और मानवतावाद के दर्शन होते है। उनकी कल्पना ऊँची, भावना कोमल और अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण है। अन्त में पन्त जी प्रगतिवादी काव्यधारा की ओर उन्मुख होकर दलितों और शोषितों की लोक क्रांति के अग्रदूत बने। पन्तजी ने साम्यवाद के समान ही गाँधीवाद का भी स्पष्ट रूप से समर्थन करते हुए लिखा है—

मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चित हमको गाँधीवाद,
सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद।

कृतियाँ:-

पन्त जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। अपने विस्तृत साहित्यिक जीवन में उन्होंने विविध विधाओं में साहित्य रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों का विवरण इस प्रकार है—

लोकायतन (महाकाव्य)- पन्त जी का लोकायतन महाकाव्य लोक जीवन का महाकाव्य है। यह महाकाव्य सन् 1964 में प्रकाशित हुआ। इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा व्यक्त हुई है। इस रचना में कवि ने ग्राम्य-जीवन और जन-भावना को छन्दोबद्ध किया है।

वीणाः- इस रचना में पन्त जी के प्रारम्भिक प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य से पूर्ण गीत संगृहीत हैं।

पल्लवः- इस संग्रह में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य के व्यापक चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।

ग्रन्थिः- इस काव्य-संग्रह में वियोग का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित हुआ है। प्रकृति यहाँ भी कवि की सहचरी रही है।

गुंजनः- इसमें प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित गम्भीर एवं प्रौढ़ रचनाएं संकलित की गई हैं।

अन्य कृतियाँ :- स्वर्णधूलि, स्वर्ण-किरण, युगपथ, उत्तरा तथा अतिमा आदि में पन्तजी महर्षि अरविन्द के नवचेतनावाद से प्रभावित है। युगान्तयुगवाणी और ग्राम्या में कवि समाजवाद और भौतिक दर्शन की ओर उन्मुख हुआ है। इन रचनाओँ में कवि ने दीन-हीन और शोषित वर्ग को अपने काव्य का आधार बनाया है।

 

  • नन्ददुलारे वाजपेयी पन्त को छायावाद का प्रवर्तक मानते है  ।
  • शुक्ल के अनुसार “छायावाद के प्रतिनिधि कवि”।
  • प्रथम रचना – गिरजे का घण्टा(1916)
  • अंतिम रचना -लोकायतन (1964)
  • प्रथम छायावादी रचना – उच्छवास
  • अंतिम छायावादी रचना -गुंजन
  • छायावाद का अंत और प्रगतिवाद के उदय वाली रचना – युगांत
  • गांधी और मार्क्स से प्रभावित रचना – युगवाणी
  • सौन्दर्य बोध की रचना – उतरा
  • पन्त एव बच्चन द्वारा मिलकर लिखी रचना – खादी के फूल
  • छायावाद का मेनिफेस्टो/घोषणापत्र – पल्लव
  • प्रकृति की चित्रशाला- पल्लव
  • चिदम्बरा काव्य पर -ज्ञानपीठ पुरस्कार 1968(हिंदी साहित्य का प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला)
  • कला और बूढ़ा चाँद –साहित्य अकादमी पुरस्कार (1960)
  • लोकायतन रचना पर – सोवियत लैंड पुरस्कार।

स्मृति विशेष

उत्तराखण्ड में कुमायूँ की पहाड़ियों पर बसे कौसानी गांव में, जहाँ उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज 'सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका' नामक संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन, आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं।

संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन होता है। यहाँ से 'सुमित्रानंदन पंत व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उनके नाम पर इलाहाबाद शहर में स्थित हाथी पार्क का नाम 'सुमित्रानंदन पंत बाल उद्यान' कर दिया गया है।




सन २०१५ में पन्त जी की याद में एक डाक-टिकट जारी किया गया था।