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23 October, 2021

रानी चेन्नम्मा

 

रानी चेन्नम्मा


आपको एक नायिका की कहानी सुनाई जाए, जिसने अंग्रेजों के साथ लोहा लिया. जिसकी लगाई क्रांति की आग ने भारत में आजादी की लड़ाई की अलख जगाई. जिसने अपने राज्य की रक्षा के लिए बेटा गोद लिया क्योंकि शादी के थोड़े समय के बाद ही पति की मृत्यु हो गई थी. जो अंग्रेजों की गोद निषेध नीति के विरोध में सेना लेकर मैदान ए जंग में उतर आई. अगर आप कहीं इन सब तथ्यों को पढ़ने के बाद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में सोच रहे हैं तो आप गलत हैं. हम दरसअल कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के बारे में बात कर रहे हैं जिनका रानी लक्ष्मीबाई से लगभग 56 साल पहले महान भारतीय परिदृश्य पर अवतरण हुआ था. 


19वीं सदी की शुरुआत में देश के बहुत से शासक अंग्रेजों की बदनीयत को समझ नहीं पाए थे। लेकिन उस समय भी कित्तुरु की रानी, रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी।




रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है। इसलिए उनको 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है। 

वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले उनके सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है।

चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को ककाती में हुआ था। यह कर्नाटक के बेलगावी जिले में एक छोटा सा गांव है। उनके पिता का नाम गुलाप्पा देसाई ओर माताका नाम पद्मावती था।


 बचपन से ही चेन्नम्मा को तलवारबाजी, घुड़सवारी और युद्ध कलाओं का शौक था. राजपरिवार में जन्म होने के कारण चेन्नम्मा को अपने इन शौकों को पूरा करने का मौका भी मिला. उन्होंने इतनी शिद्दत से इन कलाओं को सिखा की, युवा होते—होते अपने युद्धकौशल की वजह से वह प्रसिद्ध हो गई.


उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। कित्तुरु अभी कर्नाटक में है।

 कुछ समय सुख से बीता लेकिन इसके बाद चेन्नम्मा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. राजा मल्लासर्ज मृत्यु को प्राप्त हो गए. कुछ सयम बाद रानी चेन्नम्मा के पुत्र का भी देहांत हो गया. ऐसे में राज्य के सामने राजा के पद का संकट खड़ा हो गया. कित्तुर की राजगद्दी रिक्त हो गई थी. जिसे भरने के लिए रानी चेन्नम्मा ने एक पुत्र गोद लिया.
 

रानी चेन्नम्मा गोद निषेध नीति और संघर्ष –

बेटा गोद लेकर राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के तौर पर घोषणा करने पर एक समस्या पैदा हुई, जिसने रान चेन्नम्मा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नायिका बनने का गौरव दिया. उन दिनों कर्नाटक सहित पूरे भारत पर अंग्रेजों का राज था. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गर्वनर लॉर्ड डलहौजी ने गोद निषेध नीति की घोषणा कर दी थी. इस नीति के अनुसार भारत के जिन राजवंशों में गद्दी पर बैठने के लिए वारिस नहीं होता था, उन्हें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपने नियंत्रण में ले लेती थी. दरअसल अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं को अपदस्थ कर राज्य हड़पने के लिए इस नीति का निर्माण किया था.

इस नीति की वजह से रानी चेन्नम्मा को कित्तूर की गद्दी पर गोद लिए पुत्र का बैठाना ब्रिटिशर्स को नागवार गुजरा. उन्होंने इसे नियमों के विरूद्ध बताया और रानी चेन्नम्मा को इसके लिए मना किया. पहले बातचीत द्वारा इस मुद्दे को हल करने की कोशिश की गई लेकिन बात नहीं बनी. रानी चेन्नम्मा ने कित्तूर में हो रही ब्रिटिश अधिकारियों से बातचीत असफल होते देख बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर से बात करने की कोशिश की. इसका कोई परिणाम नहीं निकाला क्यों​कि अंग्रेज कित्तूर पर किसी भी तरह कब्जा जमाना चाहते थे. ब्रिटिशराज कित्तूर के बहुमूल्य खजाने को लूटने का पूरा मन बना चुके थे. कित्तूर के खजाने में बहुमुल्य आभूषणों जेवरात और सोना था, जिसे अंग्रेज हथियाना चाहते थे. एक अनुमानक के अनुसार उस दौर में कित्तूर के खजाने की कीमत 15 लाख रूपए थी. अंग्रेजों ने गोद लिए बालक को गद्दी का वारिस मानने से साफ इंकार कर दिया. इस इंकार ने कित्तूर और अंग्रेजों के बीच संघर्ष को अवश्यमभावी बना दिया.

अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।

ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया। लेकिन चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। 

उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। 

उन्होंने कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तुरु के बीच लड़ाई शुरू हो गई। 

अंग्रेजों ने कित्तुरु के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।

अंग्रेजों ने 20,000 सिहापियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तुरु पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई।

 उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तुरु की सेना के हाथों मारा गया। 


रानी चेन्नम्मा का अंग्रेजों के साथ कड़ा संघर्ष –

जब यह तय हो गया कि अंग्रेज नहीं मानने वाले तो रानी चेन्नम्मा ने संघर्ष करने का फैसला लिया. वे पहली रानी थी जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ने के लिए सेना के गठन की तैयारी शुरू की. अंग्रेजों को इसका पता चला और 1924 में दोनों की सेनाएं आमने—सामने आ डटी. एक ऐसा संघर्ष जिसका परिणाम पहले से ही सबको पता था कित्तूर जैसे छोटे राज्य ने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी थी, लेकिन यह मसला नतीजे का नहीं आजादी से जीने और मरने का था. रानी चेन्नम्मा ने फैसला किया या तो वे आजाद जिंएगी नहीं तो लड़कर मरेंगी. इस लड़ाई में अंग्रेजों ने भारतीय महिला के युद्ध कौशल को देखा. पहले पहल तो उनके होश उड़ गए लेकिन बाद में पीछे से आने वाली मदद ने उनको संभाल लिया. आखिर में यह लड़ाई अंग्रेजों ने अपनी बड़ी सेना और आधुनिक हथियारों से जीत ली.

रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों से भारी नुकसान –

अंग्रेजों ने लड़ाई तो जीत ली लेकिन रानी चेन्नम्मा ने उनका इतना नुकसान किया कि वे लंबे समय तक कित्तूर के युद्ध से उबर नहीं पाए. इस लड़ाई में अंग्रेजों ने 20 हजार सिपाहियों और 400 बंदूकों की सेना का सहारा लिया. युद्ध के पहले दौर में ब्रिटिश सेना का भारी नुकसान हुआ और ब्रिटिश एजेंट और उस खीते के कलेक्टर जॉन थावकेराय को मौत के घाट उतार दिया गया. चेन्नम्मा के मुख्य सेनापति बलप्पा ने ब्रिटिश सेना को एक बार तो पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. ब्रिटिश सेना के दो प्रमुख अधिकारियों सर वॉल्टर इलियट और मी.स्टीवेंसन को गिरफ्तार कर लिया गया. इस दौर की लड़ाई के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने समझौते की मांग की और समझौते के तहत इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों को रिहा कर दिया गया. युद्ध को टाल दिया गया. इसी बीच दूसरे अंग्रेज अधिकारी चैपलिन ने दूसरे मोर्चों पर लड़ाई जारी रखी. दूसरे दौर में भी कित्तूर की सेना ने बहादूरी दिखाई और सोलापूर के सबकलेक्टर मुनरो लड़ते हुए मारे गए. लड़ाई लंबी खिंच जाने की वजह से और सीमीत संसाधनों के धीरे—धीरे खत्म हो जाने की वजह से आखिर में रानी चेन्नम्मा को हार का मूंह देखना पड़ा और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके बेल्होंगल के किले में कैद कर दिया. जहां 21 फरवरी, 1829 में उन्होंने आखिरी सांस ली. इस महान युद्ध में रानी चेन्नम्मा को स्थानीय सहायता भरपूर मिली. अपनी बहादुरी के लिए कर्नाटक के लोगों ने उन्हें नायिका की तरह पूजा जाता है


चेन्नम्मा के सहयोगी अमातूर बेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुंचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया। 

इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों संगोल्ली रयन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।

उनकी याद में 22 से 24 अक्टूबर को हर साल कित्तूर उत्सव मनाया जाता है. उनके सम्मान में नयी दिल्ली के पार्लियामेंट हाउस में उनकी मूर्ति भी स्थापित की गई है. कित्तुरु की रानी चेन्नम्मा की उस प्रतिमा का अनावरण 11 सितंबर, 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने किया था। प्रतिमा को कित्तुर रानी चेन्नम्मा स्मारक कमिटी ने दान दिया था जिसे विजय गौड़ ने तैयार किया था।





इसके अलावा कर्नाटक में भी रानी चेनम्मा को सम्मान देने के लिए उनकी मूर्तियां बेंगलुरू और कित्तूर में बनवाया गया है. आज भी कित्तूर का राजमहल और दूसरी ऐतिहासिक इमारतों में इस महान महिला की वीरता के साक्ष्यों को देखा और महसूस किया जा सकता है. 



उनके सन्मानमे भारतीय ट्रेन विभाग द्वारा कोल्हापुर से बेंगलुरु तक 16590 नंबर की एक्सप्रेस ट्रेन शुरू की जिनका नाम "रानी चेन्नम्मा एक्सप्रेस" है


भारतीय डाक विभाग द्वारा 1977में उनके सन्मानमे 25 पैसेकी डाक टिकिट जारी की गई।


उन्होंने जो आजादी की अलख जगाई, उससे ढेरों अन्य लोगों ने प्रेरणा ली. रानी चेन्नम्मा को योगदान को कभी भूलाया नहीं जा सकता. वे न सिर्फ महिला शक्ति की प्रतीक हैं बल्कि वे प्रेरणा स्रोत भी हैं कि अपनी शर्तों पर जीवन जीने के लिए कोई भी मूल्य कम ही होता है.

31 May, 2021

अहिल्याबाई होल्कर

 अहिल्याबाई होल्कर



जन्म दिनांक: 31 मई सन् 1725 ई
जन्मस्थान: चांऊडी गांव (चांदवड़), अहमदनगर, महाराष्ट्र
मृत्यु: 13 अगस्त सन् 1795 ई.
पिता का नाम:मानकोजी शिंदे
माता का नाम:सुशीला बाई
पति: खंडेराव
बच्चे: मालेराव (पुत्र) और मुक्ताबाई (पुत्री)
पद: महारानी
 कर्म भूमि:भारत

महारानी अहिल्याबाई होल्कर की आज 295 वीं जयंती है. महारानी अहिल्याबाई होल्कर एक बहादुर, निडर और महान योद्धा थीं. जिन्होंने अपने शासन के दौरान प्रजा के हित के लिए कई काम किए हैं.

उनको हमेशा से एक बहादुर, आत्मनिष्ठ, निडर महिला के रूप में याद किया जाता है. ये अपने समय की सर्वश्रेष्ठ योद्धा रानियों में से एक थीं, जो अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहती थीं. इतना ही नहीं उनके शासन काल में मराठा मालवा साम्राज्य ने काफी ज्यादा नाम कमाया था. जनहित के लिए काम करने वाली महारानी ने कई हिंदू मंदिर का निर्माण भी करवाया था, जो आज भी पूजे जाते हैं.

अहिल्याबाई एक दार्शनिक और कुशल राजनीतिज्ञ थीं. इसी वजह से उनकी नजरों से राजनीति से जुड़ी कोई भी बात छुप नहीं सकती थी. महारानी की इन्हीं खूबियों के चलते ब्रिटिश इतिहासकार जॉन कीस ने उन्हें 'द फिलॉसोफर क्वीन' की उपाधि से नवाजा था.

महारानी अहिल्याबाई होलकर 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ शहर के एक छोटे से गांव चौंडी में जन्मी थी। उनके पिता का नाम पाटिल मंकोजी राव शिंदे है और उनकी माता का नाम सुशीला बाई था। महारानी अहिल्याबाई अपने माँ बाप की एक लोती बच्ची थीं। और उनके पिता महिला की  शिक्षा के हिमायती थे, वो उस समय जहाँ पर महिलाओं को घर से भी बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी।उस समय उनके  पिता ने अहिल्याबाई का साथ दिया और उनको घर पर पड़ाना शुरू कर दिया था वे बचपन से ही  लक्षणरहित योग्यता की महिला थी, जो कि किसी भी विषय को बहुत ही आसानी से समझ जाती थी। आगे चलकर उन्होंने अपने काम से लोगों को हैरान कर दिया। और बहुत सारी मुश्किलों का सामना करने के बाद भी अहिल्याबाई होलकर ने कभी भी अपनी राह से विचलित नहीं हुई और वो अपने लक्ष्य तक पहूंचने में सफल हो गई।


अहिल्याबाई होल्कर का विवाह मल्हार राव के बेटे खंडेराव से हुआ था, लेकिन साल 1754 में पति की मृत्यु के बाद महारानी ने सती होने का फैसला लिया था. इनके इस फैसले ने सबको हैरान कर दिया था, लेकिन उनके ससुर ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया था. वहीं कुछ समय बाद महारानी के पुत्र की मृत्यु  हो गई थी


  • महारानी अहिल्याबाई बचपन से ही दया, लोगों के लिए किसी भी प्रकार का मनभेद नही होना और  लोगो की मदद करने में विश्वास करती थी । एक दिन की बात है जिस दिन अहिल्याबाई गरबी लोगों को भोजन करवा रही थी। मालवा राज के राजा  मल्हार राव होलकर  जो पुणे जा रहे थे और आराम करने के लिए  चोंडी गांव में ही रुके हुए थे और उनकी अहिल्याबाई पर नज़र पड़ी। 
  • अहिल्याबाई को लोगो के प्रति  दया भाव को देखकर महाराज मल्हार राव होलकर इतने खुश हुए कि उन्होंने महारानी अहिल्याबाई होलकर के पिता मानकोजी शिंदे से अपने बेटे की शादी अहिल्याबाई से करवाने के लिए  हाथ मांगा लिया।
  • साल 1733 में जब अहिल्याबाई होलकर 8 साल की ही  थी, तब ही उनकी शादी खंडेराव के साथ करवा दी गई क्योंकि उस समय मे बाल विवाह करना एक रिवाज माना जाता था जिसमे लड़के और लड़कियो दोनों की ही छोटी उम्र में शादी करवा दी जाती थी।खांडरेव होलकर के मराठा सम्राट थे जिस से अहिल्याबाई की शादी हुई तो इस वजह से शादी के बाद अहिल्याबाई छोटी उम्र में ही मराठा साम्राजय की रानी बन गई।
  • शादी के 10 साल बाद अहिल्याबाई और खांडेराव होलकर को 1745 में एक  बेटा हुआ जिसका नाम उन्होंने  मालेराव रखा था और बेटे के जन्म के 3 साल बाद ही 1748 में उनकी बेटी हुई जिसका नाम उन लोगों ने मुक्ताबाई रखा था।
  • अहिल्याबाई, राजकीय कार्य मे अपने पति की बहुत ही मदद करती थी, साथ ही उन्होंने अपने पति को युद्ध और एक कौशल फौजी के रूप में निखरने के लिए हमेशा उत्साहित भी किया करती थी । हालांकि, खांडेराव एक अच्छे सिपाही थे, जिन्होंने अपने पिता से फ़ौजी कौशल की शिक्षा ली थी।
  • अहिल्याबाई की बहुत ही खुशी से और  शांती से अपने जीवन को जी रही थी । लेकिन साल 1754 में अहिल्याबाई की जिंदगी में दुखो का समुंद्र ही टूट पड़ा। 
  • अहिल्याबाई जिस समय  21 साल की ही थी तो तभी उनके पति युद्ध मे शहीद हो गए। जिसका सदमा अहिल्याबाई को बहुत पड़ा था। अपने पति से इतने प्यार करने की वजह से अहिल्याबाई ने संत होने का फैसला ले लिया, लेकिन उनके ससुर जो कि उनके पिता समान है पिता ने उनको  ऐसा करने से रोक दिया उनकी बात को मान कर अहिल्याबाई अपना फैसला बदल लिया|
  • साल 1766 में ही मल्हार राव होलकर की भी मृत्यु हो गई। शासन संभालने के कुछ दिनों बाद ही साल 1767 में उनके बेटे मालेराव की भी मौत हो गई। पति,पुत्र और अपने पिता समान ससुर की मृत्यु के बाद भी उन्होंने खुद को जिस तरह से  संभाला है जो कि काबिलय तारीफ है।

  • एक महान और वीर स्तर के तौर पर अहिल्याबाई ने 18वीं सदी में राजधानी माहेश्वर में नर्मदा नदी के किनारे एक बहुत ही सुंदर और आलीशान अहिल्या महल को बनवाया । इस महल में गाने, कला, शास्त्र समूह के लिए जाना जाता था।
  • महारानी अहिल्याबाई किसी बड़े शहर की महारानी नही थी लेकिन तब भी उन्होंने अपने शासन प्रणाली की अवधि में अपने राज्य के विवरण करने में और और उसको एकदम सम्पन्न और विकसित शहर बनाने के काम करने में लग गयी।
  • इंदौर  शहर को एक सुंदर शहर बनाने के लिए महारानी अहिल्याबाई ने अपना बहुत से योगदान दिया था। कम से कम 30 साल के आश्रयजनक प्रधान के बाद अहिल्याबाई ने एक छोटे से गांव को एक बहुत ही खूबसूरत शहर बना दिया तज जो कि समपन्न है।उन्होंने सरकार पर सड़क की मरम्मत, लोगों को रोजगार मिले, जो लोग भूखे है उन लोगों के लिए अन का प्रम्बन्ध, और सबको शिक्षा प्राप्त हो चाहे वो पुरुष हो या महिला को मिलनी चाहिए इन सब कामों के लिए अहिल्याबाई ने काफी दबाव दिया।  अहिल्याबाई की वजह से ही आज भी इंदौर की पहचान एक भारत केसुंदर और विकसित देश में नाम आता है जो कि बहुत ही गर्व की बात है।
  • उनका प्रशासन-प्रबंध संबंधी तंत्र श्रेष्ठ था, वो खुद रात को देर देर तक जागती थी और खुद अपने राज्य का जितना भी काम है उसको खत्म करती थी।

महारानी अहिल्याबाई के सम्मान

महारानी अहिल्याबाई होलकर के किए गए महान कामों के लिए उनको  भारत सरकार की तरफ से 25 अगस्त साल 1996 में  समानित किया गया। और एक डाक टिकट को भी जारी कर दिया गया।  अहिल्याबाई जी के आसाधारण कामों के लिए भी उनके नाम पर एक अवॉर्ड भी स्थित किया गया था।

एक योजना उत्तराखण्ड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है। जो अहिल्‍याबाई होल्‍कर को पूर्णं सम्‍मान देती है। इस योजना का नाम ‘अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी विकास योजना है। अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी पालन योजना के तहत उत्तराखणवड के बेरोजगार, बीपीएल राशनकार्ड धारकों, महिलाओं व आर्थि के रूप से कमजोर लोगों को बकरी पालन यूनिट के निर्माण के लिये भारी अनुदान राशि प्रदान की जाती है। लगभग 1,00,000 रूपये की इस युनिट के निर्मांण के लिये सरकार की ओर से 91,770 रूपये सरकारी सहायता रूप में अहिल्‍याबाई होलकर के लाभार्थी को प्राप्‍त होते हैं।

 महारानी अहिल्याबाई को मौत सन् 13 अगस्त 1795  में तबियत खराब होने की वजह से हो गई थी। लेकिन आज भी अहिल्याबाई होलकर जी की उदारता और उनके महान कामों ने उनको अभी तक लोगो के दिल मे जिंदा बनाए रखा है।


अहिल्या घाट, 
वाराणसी