मैथिलीशरण गुप्त
हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।
उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।
उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी।
उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया।
इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्तजी का सबसे बड़ा योगदान है।
घासीराम व्यासजी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्तजी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
रचनाएँ
- अनूदित रचनाएँ— ‘वीरांगना‘, ‘मेघनाद-वध’, ‘वृत्त-संहार’, ‘स्वप्नवासदत्ता’, ‘प्लासी का युद्ध’, ‘विरहिणी’, ‘ब्रजांगना’ आदि इनकी अनूदित रचनाएँ हैं।
- मौलिक रचनाएँ— ‘साकेत’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोदरा’, ‘द्वापर’, ‘जयभारत’, ‘विष्णुप्रिया’ आदि आपकी मौलिक रचनाएँ हैं।
- साकेतः- यह उत्कृष्ट महाकाव्य है, श्रीरामचरितमानस के पश्चात् हिन्दी में राम काव्य का दूसरा स्तम्भ यही महाकाव्य है।
- भारत-भारतीः- इसमें देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। इसी रचना के कारण गुप्त जी राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात् हैं।
- यशोधराः- इसमें बुद्ध की पत्नी यशोधरा के चरित्र को उजागर किया गया है।
- द्वापर, जयभारत, विष्णुप्रियाः- इसमें हिन्दू संस्कृति के प्रमुख पात्रों का चरित्र का पुनरावलोकन कर कवि ने अपनी पुनर्निर्माण कला को उत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित किया है।
गुप्त जी की अन्य प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं—
‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ-वध’, ‘किसान’, ‘पंचवटी’, ‘हिन्दू-सैरिन्धी’, ‘सिद्धराज’, ‘नहुष’, ‘हिडिम्बा’, ‘त्रिपथमा’, ‘काबा और कर्बला’, ‘गुरुकुल’, ‘वैतालिक’, ‘मंगलघट’, ‘अजित’ आदि।
‘अनघ’, ‘तिलोत्तमा’, ‘चन्द्रहास’ नामक तीन छोटे-छोटे पद्यबन्ध रूपक भी गुप्त जी ने लिखे हैं। इस प्रकार गुप्त जी का साहित्य विशाल और विषय-क्षेत्र बहुत विस्तृत है।
गुप्तजी को उनके काव्य की सर्वोत्कृष्टता पर सम्मानित करते हुए आगरा विश्वविद्यालय साहित्य-वाचस्पति की मानद्-उपाधि से विभूषित किया।
गुप्तजी को हिन्दी साहित्य-सम्मेलन ने इनकी रचना ‘साकेत’ पर ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार’ प्रदान किया।
गुप्त जी को दो बार राज्य-सभा के सदस्य होने का सम्मान भी प्राप्त हुआ ।
राष्ट्र की आत्मा को वाणी देने के कारण मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि कहा जाता है। महात्मा गाँधी ने इनकी राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत रचनाओं के आधार पर ही इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित किया था, हिन्दी काव्य को श्रृंगार रस की दलदल से निकालकर उसमें राष्ट्रीय भावनाओं की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय गुप्त जी को ही है।
12 दिसम्बर, 1964 ई. को माँ भारती का यह महान साधक पंचतत्व में विलीन हो गया ।
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है,
सूर्य - चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मण्डन है,
बन्दीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेष की,
हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।।
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