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"જો તમારી અંદર પ્રતિભા હોય તો તમે જરૂર સફળ થશો પછી ભલે પરિસ્થિતીઓ કેટલી પણ વિપરીત કેમ ન હોય તે તમને સફળતાની ઉડાન ભરવાથી ક્યારેય રોકી શકશે નહી"

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10 November, 2021

સુરેન્દ્રનાથ બેનર્જી

 સુરેન્દ્રનાથ બેનર્જી

આધુનિક બંગાળના નિર્માતા



જન્મતારીખ: 10 નવેમ્બર 1848

જન્મસ્થળ: કલકત્તા (બંગાળ

અવશાન: 6 ઓગસ્ટ 1925

सर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ब्रिटिश राज के दौरान प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक नेताओं में से एक थे। उन्होंने भारत सभा (इंडियन नेशनल एसोसिएशन) की स्थापना की, जो प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक संगठनों में से एक था। बाद में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गए थे। वह राष्ट्रगुरू के नाम से भी जाने जाते हैं


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (Indian Freedom Movement) के इतिहास में सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) उस दौर के नेता थे, जब इसकी शुरुआत हो रही थी. पहले भारतीय सिविल सेवा (Indian Civil Services) में चुने जाने वाले दूसरे भारतीय थे. उन्हें इस सेवा से विवादास्पद तरीके से हटा दिया गया जिसके लिए उन्होंने असफल लड़ाई भी लड़ी. उन्होंने देश की पहली राजनैतिक पार्टी की स्थापना की और बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जुड़कर एक नरमपंथी नेता कहलाए. बंगाल विभाजन के प्रखर विरोधी के रूप में भी पहचाने गए. 10 नवंबर को उनके जन्मदिन पर उन्हें याद किया जा रहा है.


भारतीय स्वतंत्रता आंदलोन (Indian Freedom Movement) के इतिहास में 19वीं सदी के बहुत से नेताओं के योगदान को कम याद किया जाता है. इनमें से एक नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) का कहानी कुछ रोचक है. ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा में चुने गए दूसरे भारतीय के रूप में मशहूर सुरेंद्रनाथ बनर्जी को उन्हें इस सेवा से बेदखल कर दिया गया था. इस अन्याय के कारण बनर्जी राष्ट्रवादी (Nationalist नेता बन गए और कांग्रेस से भी जुड़े. एक शिक्षाविद के तौर पर. बंगाल विभाजन के प्रखर विरोधी रहे बनर्जी को गांधी जी के तरीकों के विरोधी के तौर पर भी जाना जाता है. 10 नवंबर को उनकी जन्मतिथि है.

पिता का गहरा प्रभाव
सुरेंद्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर 1848 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के कुलीन ब्राह्मण परिवावर में हुआ था. उनके पिता दुर्गा चरण बनर्जी पेशे से डॉक्टर थे और उनके उदारवादी और प्रगतिवादी विचारों का गहरा असर हुआ था. कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वे इंडियन सिविल सिर्विस की परीक्षा पास करने के लिए इंग्लैंड चले गए और इस परीक्षा को पास करने वाले वे दूसरे भारतीय थे.

दो बार पास की सिविल सेवा परीक्षा
सुरेंद्रनाथ ने 1869 में में सिविल सेवा परीक्षा पास की, लेकिन उन्हें इसमें शामिल होने से रोक दिया गया. उन पर गलत जन्मतिथि बताने का आरोप लगा था. लेकिन सुरेंद्रनाथ ने इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और दलील दी कि उन्होने अपनी उम्र हिंदू रितियों के तहत उम्र बताई थी. बनर्जी ने दूसरी बार 1871 में फिर से परीक्षा दी और और सिलहट में असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के तौर पर नियुक्त हुए.

सिविल सेवा का विवाद
सिविल सेवा से जुड़ने केबाद जल्दी ही बनर्जी को एक गंभीर न्यायिक गलती के कारण बर्खास्त कर दिया गया. इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए वे इंग्लैंड गए और असफल रहे. उन्होंने महसूस किया कि उनके साथ नस्लभेद का बर्ताव किया गया है. इग्लैंड प्रवास के दौरान बनर्जी ने एडमंड बूर्क और अन्य उदारवादी दार्शनिकों को पढ़ा जिससे उनके राष्ट्रवादी होने की नींव मजबूत हुई. उनकी जिद के कारण अंग्रेज उन्हें सरेंडर नॉट बनर्जी कहते थे.

एक कुशल अध्यापक के साथ-साथ सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सफल पत्रकार भी थे. 1883 ई० में बंगाली” नामक पत्र का प्रकाशन किया गया. सुरेन्द्रनाथ बंगाली पत्र के सम्पादक थे और इनके लेखों को सरकार ने आपत्तिजनक मानकर इन्हें दो मास की सजा दी थी. सजा के विरोध में अभूतपूर्व जन-जागरण हुआ. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी छात्रों के बीच अधिक लोकप्रिय थे.

पहली’ राजनैतिक पार्टी की स्थापना
बनर्जी 1875 में भारत वापस लौटे और अंग्रेजी के प्रोफेसर बन गए और रिपन कॉलेज की स्थापना भी की जो अब उनके नाम से ही जाना जाता है. इसके अलावा उन्होंने इंडियन नेशनल एसोसिएशन की भी स्थापना की जो उस समय भारत की पहली राजनैतिक पार्टी कहलाई. उन्होंने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद और उदारवादी राजनीति की पैरवी की.

देश भर में लोकप्रियता
बनर्जी ने अपने संगठन का उपयोग भारतीय छात्रों की सिविल सेवा परीक्षा की कम आयुसीमा के मुद्दे से निपटने का जरिया भी बनाने का प्रयास किया. अंग्रेजों की नस्ल आधारित भेदभाव की बनर्जी ने देश भर में जम कर आलोचना की जिससे वे बहुत लोकप्रिय हुए. लेकिन इसमें उनकी शानदार वाकपटुता का बड़ा योगदान था.




कांग्रेस में विलय
1979 में सुरेंद्रनाथ ने द बंगाली नाम का एक अखबार खरीद लिया औरउसके बाद अगले 40 सालों तक उसका संपादन किया.  अंग्रेजों का विरोध जताने के आरोपमें उन्हें 1883 में गिरफ्तार भी किया गया. इस तरह वे जेल जाने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने. 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय बनर्जी ने अपनी पार्टी का उसमें विलय करा दिया. वे 1895 में पूना और 1902 के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष भी चुने गए थे.


सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एक महान विचारक और कुशल वक्ता थे. ब्रिटिश संसद एवं जनता के सामने भारतीय दृष्टिकोण को उपस्थित करने के लिए इन्हें कई बार शिष्टमण्डल का सदस्य नियुक्त कर इंगलैण्ड भेजा गया था. अपने भाषण एवं तर्कपूर्ण विचार से वे अंगरेजों को बहुत प्रभावित कर देते थे. इंगलैण्ड के प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन की तरह सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी एक प्रभावशाली वक्ता थे. इन्हें इंडियन ग्लैडस्टोन की संज्ञा दी गयी थी. सर हेनरी कॉटन ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की वाकपटुता और योग्यता के सम्बन्ध में यह उद्गार प्रकट किया था कि “मुल्तान से लेकर चटगाँव तक वे अपनी वाणीकला के जादू से विद्रोह उत्पन्न कर सकते थे और विद्रोह को दबा भी सकते थे. भारत में उनकी स्थिति वही थी जो डैमोस्थानीज की यूनान में या सिसरो की इटली में थी.”


बंगाल विभाजन के प्रमुख नेता

लॉर्ड कर्जन ने 1905 ई० में बंगाल विभाजन की घोषणा की. बंग-विभाजन के विरुद्ध सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने विद्रोह छेड़ दिया और सारे राष्ट्र में अपने भाषण और लेख के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना में एक नई लहर पैदा कर दी. विरोध का नेतृत्व करते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को पुलिस की लाठी खानी पड़ी थी.


1905 में बंगाल विभाजन केसमय बनर्जी एक अहम नेता के रूप में उभरे. बनर्जी की सरपरस्ती में गोपाल कृष्ण गोखले और सरोजनी नायडू जैसे भारतीय नेता देश के परिदृश्य में आए. वे सबसे वरिष्ठ नरमपंथी कांग्रेस के तौर पर जाने जाते थे. वे जीवन भर नरमपंथी नेता बने रहे और मानते ति के देश को अंग्रेजों से बातचीत के जरिए ही अंग्रेजों से आजादी हासिल करनी चाहिए.


सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक पुस्तक की रचना की थी. उसका नाम, ए नेशन इन दी मेकिंग’ (A Nation in the Making) था.



इसके बाद बनर्जी भारतीय राष्ट्रवादी धारा से अलग थलग होते दिखे. 1909 में उन्होंने मार्ले मिंटो सुधार का समर्थन किया. उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से सैद्धांतिक तौर पर असहमति जताई जिससे वे और हाशिए पर चले गए. उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और बंगाल सरकार में मंत्री पर अपनाने पर उन्हें बहुत विरोध का सामना भी करना पड़ा. 6 अगस्त 1925 को बैरकपुर में उनका निधन हो गया.


सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रदूत थे. वे सांविधानिक आन्दोलन के जन्मदाता थे. राष्ट्रसेवा में अपना सब कुछ अर्पित करने वालों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का नाम स्वर्णक्षरों में अंकित किया जाता है.



03 August, 2021

मैथिलीशरण गुप्त

 

मैथिलीशरण गुप्त

(राष्ट्रकवि )


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त  हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे

बाल कविताओं के प्रमुख कवि और खड़ी बोली को अपनी कविताओं का माध्यम बनाने वाले प्रमुख महत्वपूर्ण कवि मैथिलीशरण गुप्त थे

 मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त १८८६ में पिता  रामचरण गुप्त और माता काशीबाई की तीसरी संतान के रूप में उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में हुआ। 

माता और पिता दोनों ही वैष्णव थे। 

गुप्तजी के पिता स्वयं एक अच्छे कवि थे। पिता के काव्यानुरागी स्वभाव का गुप्तजी के जीवन पर प्रभाव पड़ा और बाल्याकाल में ही उन्होंने एक कविता रच डाली। पिता ने प्रशन्न होकर उन्हें महान कवि बनने का आशीर्वाद दिया, जो आगे चलकर फलीभूत हुआ ।

विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। 

रामस्वरूप शास्त्री, दुर्गादत्त पंत, आदि ने उन्हें विद्यालय में पढ़ाया। घर में ही हिन्दीबंगलासंस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरीजी ने उनका मार्गदर्शन किया। 

१२ वर्ष की अवस्था में ब्रजभाषा में कनकलता नाम से कविता रचना आरम्भ किया। 

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने के कारण गुप्त जी को अपने प्रतिभा के अनुरूप क्षेत्र प्राप्त हुआ और उनकी काव्य-चेतना का विस्तार हुआ। उनकी कवितायें खड़ी बोली में मासिक "सरस्वती" में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गई।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के गुरु का नाम आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी था । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी से इन्हें बहुत प्रेरणा मिली। इसलिए ये द्विवेदी जी को अपना गुरु मानते थे ।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।

 उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।


 उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी।


उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।


महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। 


इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्तजी का सबसे बड़ा योगदान है। 


घासीराम व्यासजी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्तजी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।


रचनाएँ


  • अनूदित रचनाएँ— ‘वीरांगना‘, ‘मेघनाद-वध’, ‘वृत्त-संहार’, ‘स्वप्नवासदत्ता’, ‘प्लासी का युद्ध’, ‘विरहिणी’, ‘ब्रजांगना’ आदि इनकी अनूदित रचनाएँ हैं।
  • मौलिक रचनाएँ— ‘साकेत’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोदरा’, ‘द्वापर’, ‘जयभारत’, ‘विष्णुप्रिया’ आदि आपकी मौलिक रचनाएँ हैं।
  • साकेतः- यह उत्कृष्ट महाकाव्य है, श्रीरामचरितमानस के पश्चात् हिन्दी में राम काव्य का दूसरा स्तम्भ यही महाकाव्य है।
  • भारत-भारतीः- इसमें देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। इसी रचना के कारण गुप्त जी राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात् हैं।
  • यशोधराः- इसमें बुद्ध की पत्नी यशोधरा के चरित्र को उजागर किया गया है।
  • द्वापर, जयभारत, विष्णुप्रियाः- इसमें हिन्दू संस्कृति के प्रमुख पात्रों का चरित्र का पुनरावलोकन कर कवि ने अपनी पुनर्निर्माण कला को उत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित किया है।

गुप्त जी की अन्य प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं—

‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ-वध’, ‘किसान’, ‘पंचवटी’, ‘हिन्दू-सैरिन्धी’, ‘सिद्धराज’, ‘नहुष’, ‘हिडिम्बा’, ‘त्रिपथमा’, ‘काबा और कर्बला’, ‘गुरुकुल’, ‘वैतालिक’, ‘मंगलघट’, ‘अजित’ आदि।
‘अनघ’, ‘तिलोत्तमा’, ‘चन्द्रहास’ नामक तीन छोटे-छोटे पद्यबन्ध रूपक भी गुप्त जी ने लिखे हैं। इस प्रकार गुप्त जी का साहित्य विशाल और विषय-क्षेत्र बहुत विस्तृत है।


गुप्तजी को उनके काव्य की सर्वोत्कृष्टता पर सम्मानित करते हुए आगरा विश्वविद्यालय साहित्य-वाचस्पति की मानद्-उपाधि से विभूषित किया।


गुप्तजी को हिन्दी साहित्य-सम्मेलन ने इनकी रचना ‘साकेत’ पर ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार’ प्रदान किया।


 गुप्त जी को दो बार राज्य-सभा के सदस्य होने का सम्मान भी प्राप्त हुआ ।


राष्ट्र की आत्मा को वाणी देने के कारण मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्रकवि कहा जाता है। महात्मा गाँधी ने इनकी राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत रचनाओं के आधार पर ही इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित किया था, हिन्दी काव्य को श्रृंगार रस की दलदल से निकालकर उसमें राष्ट्रीय भावनाओं की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय गुप्त जी को ही है। 


12 दिसम्बर, 1964 ई. को माँ भारती का यह महान साधक पंचतत्व में विलीन हो गया ।


नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है, 

सूर्य - चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।

 नदियां प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मण्डन है,

 बन्दीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है।

 करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेष की,

 हे मातृभूमि, तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ।।

23 May, 2021

सुमित्रानंदन पंत

  सुमित्रानंदन पंत


जन्म  20 मई 1900

जन्म-स्थान – ग्राम कौसानी, उत्तराखंड

मूलनाम – गोसाईदत्त

उपाधि –

  • प्रकृति के सुकुमार कवि
  • छायावाद का प्रतिनिधि कवि – आचार्य शुक्ल
  • छायावाद का प्रवर्तक – नंददुलारे वाजपेयी
  • छायावाद का विष्णु – कृष्णदेव झारी
  • संवेदनशील इंद्रिय बोध का कवि
मृत्यु-स्थान – 28 दिसम्बर 1977 (इलाहाबाद में)


जन्म-स्थानः-

छायावादी वृहत्रयी के कौशेय कवि, सौन्दर्यावतार कवि श्री समित्रानन्दन पन्त जी का जन्म मई 20, 1900 ई० (संवत् 1957 वि०) को प्रकृति की सुरम्य क्रीड़ा स्थली कूर्मांचल प्रदेश के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में हुआ था।

पिताः-

पन्त जी के पिता का नाम पं गंगादत्त पन्त था। पिता पं. गंगादत्त पन्त कौसानी में चाय-बागान के मैनेजर और एकाउण्टैण्ट थे। वे लकड़ी और कपड़े का व्यापार भी करते थे।

माताः-

प्रकृति के सुसुमार कवि पं. श्री समित्रानन्दन पन्त जी की माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था।

सुमित्रानन्दन पन्त जी के बाल्यकाल का नामः-

पन्त जी के बचपन का मूल नाम गोसाईदत्त पन्त था। बाद में उन्होंने अपना नाम गोसाईदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन पन्त रखा।

शिक्षाः-

सन् 1905 में पाँच वर्ष के बालक पन्त ने विद्यारम्भ किया। पिता जी ने लकड़ी की पट्टी पर श्रीगणेशाय नमः लिखकर सरस्वती के वरद पुत्र को स्वर-व्यंजन वर्ण लिखना सिखाया। पन्त जी का प्रथम विद्यालय होने का श्रेय प्राप्त हुआ- उनके गाँव कौसानी की पाठशाला कौसानी वनार्क्यूलर स्कूल को। पन्त के फूफाजी ने उन्हें संस्कृत की शिक्षा दी तथा 1909 तक मेघदूत, अमरकोश, रामरक्षा-स्रोत, चाणक्य नीति, अभिज्ञान-शाकुन्तलम् आदि का ज्ञान पन्त जी को करवा दिया ।

पन्तजी के पिताजी ने उन्हें स्वयं घर पर ही अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान दी। इसके पश्चात् ये अल्मोड़ा के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् काशी के जयनारायण हाईस्कूल, बनारस से हाईस्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। हाईस्कूल के बाद पन्त जी ने आगे की शिक्षा हेतु प्रयाग के म्योर कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया। तीर्थराज प्रयाग पन्त जी की साहित्य-साधना का केन्द्र बना।

बाद में कालेज और परीक्षा के कठोर नियंत्रण से मुक्त होकर पन्त जी स्वाध्याय में निरत हुए और स्वयं ही अपने आप को शिक्षित करना प्रारम्भ किया। पन्त जी का लगाव संगीत से भी था। उन्होंने सारंगी, हारमोनियम, इसराज तथा तबला पर संगीत का अभ्यास भी किया और सुरुचिपूर्ण रहन-सहन तथा आकर्षक वेशभूषा से उधर झुकते भी गये।

श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यः-

सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी के आह्वान पर कॉलेज छोड़ दिया। सन् 1921 में गाँधी और गाँधी-विचार-दर्शन ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। किन्तु अपने कोमल स्वभाव के कारण सत्याग्रह में सम्मिलित न रह सके और पुनः साहित्य-साधना में संलग्न हो गये।
सन् 1950 में पन्त जी आकाशवाणी से जुड़े और वहाँ चीफ प्रोड्यूसर के पद पर सन् 1957 तक कार्यरत् रहे। सन् 1958 में आकाशवाणी में ही हिन्दी परामर्शदाता के रूप में रहे। तथा सोवियत-भारत-मैत्री-संघ के निमन्त्रण पर पन्त जी ने सन् 1961 में रूस तथा अन्य यूरोपीय देशों की यात्रा की।

पं. श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी को प्रकृति का सुकुमार कवि क्यों कहा जाता हैः-

प्रकृति आदर्श शिक्षिका-संरक्षिका होती है। प्रकृति की गोद में माँ की ममता और पिता का प्रेम एक साथ प्राप्त होता है।

कवि ने स्वयं लिखा है— “ मेरी प्रारम्भिक रचनाएँ प्रकृति की ही लीला – भूमि में लिखी गयी है। ” श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी के काव्य में कल्पना एवं भावों की सुकुमार कोमलता के दर्शन होते हैं। इन्होंने प्रकृति एवं मानवीय भावों के चित्रण में विकृत तथा कठोर भावों को स्थान नहीं दिया है। इनकी छायावादी कविताएँ अत्यन्त कोमल एवं मृदुल भावों को अभिव्यक्ति करती हैं। इन्हीं कारणों से पन्त जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है।

श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी को प्राप्त मान-सम्मान व पुरस्कारः-

  1. सन् 1960 ई० में हिन्दी-साहित्यकारों ने अज्ञेय द्वारा सम्पादित मानग्रन्थ- रूपाम्बरा, राष्ट्रपित-भवन में तत्कलीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने पन्त जी को दिया था। पन्त जी की षष्टि पूर्ति पर दिया गया रूपाम्बरा जैसा मानग्रन्थ अभी तक शायद ही किसी अन्य को प्राप्त हुआ हो।
  2. भारत सरकार द्वारा उनकी साहित्यिक-कलात्मक उपलब्धियों हेतु पदम-भूषण सम्मान सन् 1961 में प्रदान किया गया।
  3. कला और बूढ़ा चाँद पर सन् 1961 में ही साहित्यिक अकादमी का पाँच हजार रुपये का अकादमी पुरस्कार मिला।
  4. लोकायतन महाकाव्य पर नवम्बर, 1965 में प्रथम सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ।
  5. सन् 1965 में ही उत्तर प्रदेश सरकार का विशिष्ट साहित्यिक सेवा हेतु दस हजार रुपये का पुरस्कार मिला।
  6. पन्त जी को सन् 1967 ई० में विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट० की मानद उपाधि से विभूषित किया।
  7. पन्त जी को सन् 1968 में चिदम्बरा पर भारतीय ज्ञान-पीठ का एक लाख रुपये का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

मृत्यु-स्थानः-

पन्त जी आजीवन सृजन-कर्म में निरत-निलीन रहे। सरस्वती के इस पुजारी, ने इलाहाबाद की भूमि पर 77 वर्ष की आयु में, 28 दिसम्बर, 1977 ई० को अपने मधुरिम गान को भू पर छोड़कर स्वर्णिम पखेरु उड़ गये।


साहित्यिक-परिचयः-

पन्त जी का बाल्यकाल कौसानी के सुरम्य वातावरण में व्यतीत हुआ। इस कारण प्रकृति ही उनकी जीवन-सहचरी के रूप में रही और काव्य-साधना भी प्रकृति के बीच रहकर ही की। अतः प्रकृति वर्णन, सौन्दर्य प्रेम और सुकुमार कल्पनाएँ उनके काव्य में प्रमुख रूप से पायी जाती हैं। प्रकृति-वर्णन की दृष्टि से पन्त जी हिन्दी के वर्ड्सवर्थ माने जाते हैं। छायावादी युग के ख्याति प्राप्त कवि सुमित्रानन्दन पन्त सात वर्ष की अल्पायु से कविताओं की रचना करने लगे थे।

उनकी प्रथम रचना सन् 1916 ई० में सामने आयी। गिरजे का घण्टा नामक इस रचना के पश्चात् वे निरन्तर काव्य साधना में तल्लीन रहे। पन्त जी के साहित्य पर कवीन्द्र रवीन्द्र, स्वामी विवेकानन्द का और अरविन्द दर्शन का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इसलिए उनकी बाद की रचनाओं में अध्यात्मवाद और मानवतावाद के दर्शन होते है। उनकी कल्पना ऊँची, भावना कोमल और अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण है। अन्त में पन्त जी प्रगतिवादी काव्यधारा की ओर उन्मुख होकर दलितों और शोषितों की लोक क्रांति के अग्रदूत बने। पन्तजी ने साम्यवाद के समान ही गाँधीवाद का भी स्पष्ट रूप से समर्थन करते हुए लिखा है—

मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चित हमको गाँधीवाद,
सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद।

कृतियाँ:-

पन्त जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। अपने विस्तृत साहित्यिक जीवन में उन्होंने विविध विधाओं में साहित्य रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों का विवरण इस प्रकार है—

लोकायतन (महाकाव्य)- पन्त जी का लोकायतन महाकाव्य लोक जीवन का महाकाव्य है। यह महाकाव्य सन् 1964 में प्रकाशित हुआ। इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा व्यक्त हुई है। इस रचना में कवि ने ग्राम्य-जीवन और जन-भावना को छन्दोबद्ध किया है।

वीणाः- इस रचना में पन्त जी के प्रारम्भिक प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य से पूर्ण गीत संगृहीत हैं।

पल्लवः- इस संग्रह में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य के व्यापक चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।

ग्रन्थिः- इस काव्य-संग्रह में वियोग का स्वर प्रमुख रूप से मुखरित हुआ है। प्रकृति यहाँ भी कवि की सहचरी रही है।

गुंजनः- इसमें प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य से सम्बन्धित गम्भीर एवं प्रौढ़ रचनाएं संकलित की गई हैं।

अन्य कृतियाँ :- स्वर्णधूलि, स्वर्ण-किरण, युगपथ, उत्तरा तथा अतिमा आदि में पन्तजी महर्षि अरविन्द के नवचेतनावाद से प्रभावित है। युगान्तयुगवाणी और ग्राम्या में कवि समाजवाद और भौतिक दर्शन की ओर उन्मुख हुआ है। इन रचनाओँ में कवि ने दीन-हीन और शोषित वर्ग को अपने काव्य का आधार बनाया है।

 

  • नन्ददुलारे वाजपेयी पन्त को छायावाद का प्रवर्तक मानते है  ।
  • शुक्ल के अनुसार “छायावाद के प्रतिनिधि कवि”।
  • प्रथम रचना – गिरजे का घण्टा(1916)
  • अंतिम रचना -लोकायतन (1964)
  • प्रथम छायावादी रचना – उच्छवास
  • अंतिम छायावादी रचना -गुंजन
  • छायावाद का अंत और प्रगतिवाद के उदय वाली रचना – युगांत
  • गांधी और मार्क्स से प्रभावित रचना – युगवाणी
  • सौन्दर्य बोध की रचना – उतरा
  • पन्त एव बच्चन द्वारा मिलकर लिखी रचना – खादी के फूल
  • छायावाद का मेनिफेस्टो/घोषणापत्र – पल्लव
  • प्रकृति की चित्रशाला- पल्लव
  • चिदम्बरा काव्य पर -ज्ञानपीठ पुरस्कार 1968(हिंदी साहित्य का प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला)
  • कला और बूढ़ा चाँद –साहित्य अकादमी पुरस्कार (1960)
  • लोकायतन रचना पर – सोवियत लैंड पुरस्कार।

स्मृति विशेष

उत्तराखण्ड में कुमायूँ की पहाड़ियों पर बसे कौसानी गांव में, जहाँ उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज 'सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका' नामक संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन, आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं।

संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन होता है। यहाँ से 'सुमित्रानंदन पंत व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उनके नाम पर इलाहाबाद शहर में स्थित हाथी पार्क का नाम 'सुमित्रानंदन पंत बाल उद्यान' कर दिया गया है।




सन २०१५ में पन्त जी की याद में एक डाक-टिकट जारी किया गया था।