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10 November, 2021

સુરેન્દ્રનાથ બેનર્જી

 સુરેન્દ્રનાથ બેનર્જી

આધુનિક બંગાળના નિર્માતા



જન્મતારીખ: 10 નવેમ્બર 1848

જન્મસ્થળ: કલકત્તા (બંગાળ

અવશાન: 6 ઓગસ્ટ 1925

सर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ब्रिटिश राज के दौरान प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक नेताओं में से एक थे। उन्होंने भारत सभा (इंडियन नेशनल एसोसिएशन) की स्थापना की, जो प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक संगठनों में से एक था। बाद में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गए थे। वह राष्ट्रगुरू के नाम से भी जाने जाते हैं


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (Indian Freedom Movement) के इतिहास में सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) उस दौर के नेता थे, जब इसकी शुरुआत हो रही थी. पहले भारतीय सिविल सेवा (Indian Civil Services) में चुने जाने वाले दूसरे भारतीय थे. उन्हें इस सेवा से विवादास्पद तरीके से हटा दिया गया जिसके लिए उन्होंने असफल लड़ाई भी लड़ी. उन्होंने देश की पहली राजनैतिक पार्टी की स्थापना की और बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जुड़कर एक नरमपंथी नेता कहलाए. बंगाल विभाजन के प्रखर विरोधी के रूप में भी पहचाने गए. 10 नवंबर को उनके जन्मदिन पर उन्हें याद किया जा रहा है.


भारतीय स्वतंत्रता आंदलोन (Indian Freedom Movement) के इतिहास में 19वीं सदी के बहुत से नेताओं के योगदान को कम याद किया जाता है. इनमें से एक नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) का कहानी कुछ रोचक है. ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा में चुने गए दूसरे भारतीय के रूप में मशहूर सुरेंद्रनाथ बनर्जी को उन्हें इस सेवा से बेदखल कर दिया गया था. इस अन्याय के कारण बनर्जी राष्ट्रवादी (Nationalist नेता बन गए और कांग्रेस से भी जुड़े. एक शिक्षाविद के तौर पर. बंगाल विभाजन के प्रखर विरोधी रहे बनर्जी को गांधी जी के तरीकों के विरोधी के तौर पर भी जाना जाता है. 10 नवंबर को उनकी जन्मतिथि है.

पिता का गहरा प्रभाव
सुरेंद्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर 1848 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के कुलीन ब्राह्मण परिवावर में हुआ था. उनके पिता दुर्गा चरण बनर्जी पेशे से डॉक्टर थे और उनके उदारवादी और प्रगतिवादी विचारों का गहरा असर हुआ था. कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वे इंडियन सिविल सिर्विस की परीक्षा पास करने के लिए इंग्लैंड चले गए और इस परीक्षा को पास करने वाले वे दूसरे भारतीय थे.

दो बार पास की सिविल सेवा परीक्षा
सुरेंद्रनाथ ने 1869 में में सिविल सेवा परीक्षा पास की, लेकिन उन्हें इसमें शामिल होने से रोक दिया गया. उन पर गलत जन्मतिथि बताने का आरोप लगा था. लेकिन सुरेंद्रनाथ ने इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और दलील दी कि उन्होने अपनी उम्र हिंदू रितियों के तहत उम्र बताई थी. बनर्जी ने दूसरी बार 1871 में फिर से परीक्षा दी और और सिलहट में असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के तौर पर नियुक्त हुए.

सिविल सेवा का विवाद
सिविल सेवा से जुड़ने केबाद जल्दी ही बनर्जी को एक गंभीर न्यायिक गलती के कारण बर्खास्त कर दिया गया. इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए वे इंग्लैंड गए और असफल रहे. उन्होंने महसूस किया कि उनके साथ नस्लभेद का बर्ताव किया गया है. इग्लैंड प्रवास के दौरान बनर्जी ने एडमंड बूर्क और अन्य उदारवादी दार्शनिकों को पढ़ा जिससे उनके राष्ट्रवादी होने की नींव मजबूत हुई. उनकी जिद के कारण अंग्रेज उन्हें सरेंडर नॉट बनर्जी कहते थे.

एक कुशल अध्यापक के साथ-साथ सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सफल पत्रकार भी थे. 1883 ई० में बंगाली” नामक पत्र का प्रकाशन किया गया. सुरेन्द्रनाथ बंगाली पत्र के सम्पादक थे और इनके लेखों को सरकार ने आपत्तिजनक मानकर इन्हें दो मास की सजा दी थी. सजा के विरोध में अभूतपूर्व जन-जागरण हुआ. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी छात्रों के बीच अधिक लोकप्रिय थे.

पहली’ राजनैतिक पार्टी की स्थापना
बनर्जी 1875 में भारत वापस लौटे और अंग्रेजी के प्रोफेसर बन गए और रिपन कॉलेज की स्थापना भी की जो अब उनके नाम से ही जाना जाता है. इसके अलावा उन्होंने इंडियन नेशनल एसोसिएशन की भी स्थापना की जो उस समय भारत की पहली राजनैतिक पार्टी कहलाई. उन्होंने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद और उदारवादी राजनीति की पैरवी की.

देश भर में लोकप्रियता
बनर्जी ने अपने संगठन का उपयोग भारतीय छात्रों की सिविल सेवा परीक्षा की कम आयुसीमा के मुद्दे से निपटने का जरिया भी बनाने का प्रयास किया. अंग्रेजों की नस्ल आधारित भेदभाव की बनर्जी ने देश भर में जम कर आलोचना की जिससे वे बहुत लोकप्रिय हुए. लेकिन इसमें उनकी शानदार वाकपटुता का बड़ा योगदान था.




कांग्रेस में विलय
1979 में सुरेंद्रनाथ ने द बंगाली नाम का एक अखबार खरीद लिया औरउसके बाद अगले 40 सालों तक उसका संपादन किया.  अंग्रेजों का विरोध जताने के आरोपमें उन्हें 1883 में गिरफ्तार भी किया गया. इस तरह वे जेल जाने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने. 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय बनर्जी ने अपनी पार्टी का उसमें विलय करा दिया. वे 1895 में पूना और 1902 के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष भी चुने गए थे.


सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एक महान विचारक और कुशल वक्ता थे. ब्रिटिश संसद एवं जनता के सामने भारतीय दृष्टिकोण को उपस्थित करने के लिए इन्हें कई बार शिष्टमण्डल का सदस्य नियुक्त कर इंगलैण्ड भेजा गया था. अपने भाषण एवं तर्कपूर्ण विचार से वे अंगरेजों को बहुत प्रभावित कर देते थे. इंगलैण्ड के प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन की तरह सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी एक प्रभावशाली वक्ता थे. इन्हें इंडियन ग्लैडस्टोन की संज्ञा दी गयी थी. सर हेनरी कॉटन ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की वाकपटुता और योग्यता के सम्बन्ध में यह उद्गार प्रकट किया था कि “मुल्तान से लेकर चटगाँव तक वे अपनी वाणीकला के जादू से विद्रोह उत्पन्न कर सकते थे और विद्रोह को दबा भी सकते थे. भारत में उनकी स्थिति वही थी जो डैमोस्थानीज की यूनान में या सिसरो की इटली में थी.”


बंगाल विभाजन के प्रमुख नेता

लॉर्ड कर्जन ने 1905 ई० में बंगाल विभाजन की घोषणा की. बंग-विभाजन के विरुद्ध सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने विद्रोह छेड़ दिया और सारे राष्ट्र में अपने भाषण और लेख के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना में एक नई लहर पैदा कर दी. विरोध का नेतृत्व करते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को पुलिस की लाठी खानी पड़ी थी.


1905 में बंगाल विभाजन केसमय बनर्जी एक अहम नेता के रूप में उभरे. बनर्जी की सरपरस्ती में गोपाल कृष्ण गोखले और सरोजनी नायडू जैसे भारतीय नेता देश के परिदृश्य में आए. वे सबसे वरिष्ठ नरमपंथी कांग्रेस के तौर पर जाने जाते थे. वे जीवन भर नरमपंथी नेता बने रहे और मानते ति के देश को अंग्रेजों से बातचीत के जरिए ही अंग्रेजों से आजादी हासिल करनी चाहिए.


सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक पुस्तक की रचना की थी. उसका नाम, ए नेशन इन दी मेकिंग’ (A Nation in the Making) था.



इसके बाद बनर्जी भारतीय राष्ट्रवादी धारा से अलग थलग होते दिखे. 1909 में उन्होंने मार्ले मिंटो सुधार का समर्थन किया. उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से सैद्धांतिक तौर पर असहमति जताई जिससे वे और हाशिए पर चले गए. उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और बंगाल सरकार में मंत्री पर अपनाने पर उन्हें बहुत विरोध का सामना भी करना पड़ा. 6 अगस्त 1925 को बैरकपुर में उनका निधन हो गया.


सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रदूत थे. वे सांविधानिक आन्दोलन के जन्मदाता थे. राष्ट्रसेवा में अपना सब कुछ अर्पित करने वालों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का नाम स्वर्णक्षरों में अंकित किया जाता है.



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