जगदीशचन्द्र बोझ
जगदीश चंद्र बोस एक प्रसिद्ध भारतीय भौतिकविद् व पादपक्रिया के वैज्ञानिक थे
भारत के पहले आधुनिक वैज्ञानिक कहे जाने वाले जगदीश चंद्र हैं। जिसने पहली बार दुनिया को बताया कि पेड़-पौधों को भी अन्य सजीव प्राणियों की तरह दर्द होता है
भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर जगदीश चंद्र बोस बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स के अविष्कार तथा पेड़−पौधों में जीवन सिद्धांत के प्रतिपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
इनके पिता का नाम भगवान चन्द्र बोस था
उनके प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भौतिक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ वो जीव वैज्ञानिक, वनस्पति वैज्ञानिक, पुरातत्वविद और लेखक भी थे
रेडियो विज्ञान के क्षेत्र में उनके अद्वितीय योगदान और शोध को देखते हुए ‘इंस्टिट्यूट ऑफ इलेक्टि्रकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर’ (आईईईई) ने उन्हें रेडियो विज्ञान के जनकों में से एक माना
आज का रेडियो, टेलिविजन, भुतलीय संचार रिमोट सेन्सिग, रडार, माइक्रोवेव अवन और इंटरनेट, जगदीश चन्द्र बोस के कृतज्ञ हैं।
शिक्षा
जगदीश चंद्र बोस ने ग्यारह वर्ष की आयु तक गाँव के ही एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद ये कलकत्ता आ गये और 'सेंट जेवियर स्कूल' में प्रवेश लिया। जगदीश चंद्र बोस की जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी फिर भी भौतिकी के एक विख्यात प्रो. फादर लाफोण्ट ने बोस को 'भौतिक शास्त्र' के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। भौतिक शास्त्र में बी. ए. की डिग्री प्राप्त करने के बाद 22 वर्षीय बोस चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा के लिए लंदन चले गए। मगर स्वास्थ्य के ख़राब रहने की वजह से इन्होंने चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार छोड़ दिया और कैम्ब्रिज के 'क्राइस्ट महाविद्यालय' से बी. ए. की डिग्री ले ली
अध्यापन
जगदीश चंद्र बोस वर्ष 1885 में स्वदेश लौट कर आये और भौतिक विषय के सहायक प्राध्यापक के रूप में 'प्रेसिडेंसी कॉलेज' में अध्यापन करने लगे। यहाँ वह 1915 तक कार्यरत रहे। उस समय भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज़ शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिया जाता था। इसका श्री जगदीश चंद्र बोस ने बहुत विरोध किया और तीन वर्षों तक बिना वेतन लिए काम करते रहे, जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति ख़राब हो गई और उन पर काफ़ी कर्ज़ भी हो गया था। इस कर्ज़ को चुकाने के लिये उन्होंने अपनी पुश्तैनी ज़मीन भी बेच दी। चौथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दे दिया गया। बोस एक बहुत अच्छे शिक्षक भी थे, वह कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का प्रयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र सत्येंद्रनाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री बने। प्रेसिडेंसी कॉलेज से सेवानिवृत्त होने पर 1917 ई. में इन्होंने बोस रिसर्च इंस्टिट्यूट, कलकत्ता की स्थापना की और 1937 तक इसके निदेशक रहे।
प्रयोग और सफलता
जगदीश चंद्र बोस ने सूक्ष्म तरंगों (माइक्रोवेव) के क्षेत्र में वैज्ञानिक कार्य तथा अपवर्तन, विवर्तन और ध्रुवीकरण के विषय में अपने प्रयोग आरंभ कर दिये थे।
लघु तरंगदैर्ध्य, रेडियो तरंगों तथा श्वेत एवं पराबैंगनी प्रकाश दोनों के रिसीवर में गेलेना क्रिस्टल का प्रयोग बोस के द्वारा ही विकसित किया गया था।
मारकोनी के प्रदर्शन से 2 वर्ष पहले ही 1885 में बोस ने रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन में जगदीश चंद्र बोस ने दूर से एक घण्टी बजाई और बारूद में विस्फोट कराया था।
आजकल प्रचलित बहुत सारे माइक्रोवेव उपकरण जैसे वेव गाईड, ध्रुवक, परावैद्युत लैंस, विद्युतचुम्बकीय विकिरण के लिये अर्धचालक संसूचक, इन सभी उपकरणों का उन्नींसवी सदी के अंतिम दशक में बोस ने अविष्कार किया और उपयोग किया था।
बोस ने ही सूर्य से आने वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण के अस्तित्व का सुझाव दिया था जिसकी पुष्टि 1944 में हुई।
इसके बाद बोस ने, किसी घटना पर पौधों की प्रतिक्रिया पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया। बोस ने दिखाया कि यांत्रिक, ताप, विद्युत तथा रासायनिक जैसी विभिन्न प्रकार की उत्तेजनाओं में सब्जियों के ऊतक भी प्राणियों के समान विद्युतीय संकेत उत्पन्न करते हैं।
'नाइट' की उपाधि
1917 में जगदीश चंद्र बोस को "नाइट" की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए 'रॉयल सोसायटी लंदन' के फैलो चुन लिए गए।
बोस ने अपना पूरा शोधकार्य किसी अच्छे (महगें) उपकरण और प्रयोगशाला से नहीं किया था, इसलिये जगदीश चंद्र बोस एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे।
'बोस इंस्टीट्यूट' (बोस विज्ञान मंदिर) इसी विचार से प्रेरित है जो विज्ञान में शोध कार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है।
सम्मान
o उन्होंने सन् 1896 में लंदन विश्वविद्यालय से विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की
o वह सन् 1920 में रॉयल सोसायटी के फैलो चुने गए
o इन्स्ट्यिूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एण्ड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियर्स ने जगदीष चन्द्र बोस को अपने ‘वायरलेस हॉल ऑफ फेम’ में सम्मिलित किया
o वर्ष 1903 में ब्रिटिश सरकार ने बोस को कम्पेनियन ऑफ़ दि आर्डर आफ दि इंडियन एम्पायर (CIE) से सम्मानित किया
o वर्ष 191 में उन्हें कम्पैनियन ऑफ़ द आर्डर ऑफ दि स्टर इंडिया (CSI) से विभूषित किया गया
o वर्ष 1917 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नाइट बैचलर की उपाधि दी
1958 में उनकी जन्म शताब्दी मनाने के लिए पश्चिम बंगाल में JBNSTS छात्रवृत्ति कार्यक्रम शुरू किया गया था। उसी वर्ष, भारत ने एक डाक टिकट जारी किया जिसमें उनका चित्र अंकित था
30 नवंबर 2016 को, बोस को उनके जन्म की 158 वीं वर्षगांठ पर एक Google डूडल में मनाया गया था
बैंक ऑफ इंग्लैंड ने एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक के साथ 50 यूके पाउंड मुद्रा नोट को फिर से डिज़ाइन करने का निर्णय लिया है। भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चंद्र बोस को Wifi तकनीक पर अपने अग्रणी काम के लिए उस नामांकन सूची में चित्रित किया गया है
25 जून 2009 को उनके सम्मान में भारतीय वनस्पति उद्यान का नाम बदल दिया गया, आचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान ( Acharya Jagadish Chandra Bose Indian Botanic Garden ) किया गया है
उनकी याद में स्थापित किए गए कोलकाता स्थित बोस इंस्टीट्यूट या बोस विज्ञान मंदिर के भी 30 नवंबर, 2017 को 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 30 नवंबर के दिन वर्ष 1917 में इस संस्थान को स्थापित किया गया था।
बसु ने अपना अधिकांश शोध कार्य किसी प्रयोगशाला एवं उन्नत उपकरणों के बिना किया था और वह एक अच्छी प्रयोगशाला बनाना चाहते थे।
रेडियो और सूक्ष्म तरंगों पर अध्ययन करने वाले जगदीश चन्द्र बसु पहले भारतीय वैज्ञानिक थे
बोस ने ऐसे यंत्र का निर्माण किया, जिससे 25 मिलीमीटर से पांच मिलीमीटर तक सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न की जा सकती थीं। यह यंत्र इतना छोटा था कि उसे एक छोटे बक्से में कहीं भी ले जाया जा सकता था। उन्होंने दुनिया को उस समय एक बिल्कुल नई तरह की रेडियो तरंग दिखाई,
उन्होंने दुनिया को बताया कि पेड़ पौधों में भी जीवन होता है। इसको मापने वाले यंत्र को उन्होंने केस्कोग्राफ का नाम दिया था। इससे पौधों में होने वाली वृद्धि तथा उद्दीपन की प्रतिक्रियाओं को मापा जाता है।
जगदीश चंद्र बसु की लिखित वैज्ञानिक कथाएं आज भी आधुनिक वैज्ञानिकों को प्रेरित करती हैं। उन्हें बंगाली विज्ञान कथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है
उन्होंने 23 नवंबर 1937 में गिरिडीह के एक मकान में अंतिम सांस ली थी। जिस मकान में वह यहां पर रहते थे उसको विज्ञान भवन का नाम दिया गया है। इसका उद्घाटन एकीकृत बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. एआर किदवई ने 28 फरवरी 1997 को किया था।
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